महाराजा मानसिंह तोमर
राजा मानसिंह तोमर का जन्म 15 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। यह सन् 1486 से 1516 ई. तक ग्वालियर रहे। यह महान् वीर, अप्रतिम कलामर्मज्ञ और गुणियों के प्रिय आश्रयदाता थे। एक किवदंती है कि एक बार आप शिकार खेलने गये वहां एक गूजर की बालिका जिसका नाम मृगनयनी था, उसके रूप-लावण्य, साहस-वीरता को देखकर आप उस पर मुग्ध हो गये तथा उससे विवाह कर लिया। यह विवाह सन् 1482 ई. के लगभग हुआ था। मृगनयनी भी संगीतप्रेमी थी। अतः विवाहोत्सव पर, उस काल के प्रसिद्ध गायक बैजू को निमंत्रित किया गया। बैजू के अद्भुत संगीत से मानसिंह तथा मृगनयनी दोनों ही बड़े प्रभावित हुए। मृगनयनी ने बैजू से संगीत शिक्षा गृहण करने की इच्छा प्रकट की और मानसिंह ने उन्हें मृगनयनी का संगीत शिक्षक नियुक्त कर दिया। यह भी कहा जाता है कि मृगनयनी ने गूर्जरी तोड़ी, मृगरंजनी तोड़ी और हुगल गूजरी आदि कई नए रागों की रचना की है।
ग्वालियर की गान-कला के साथ ही अकबरी दरबार में ब्रजभाषा को प्रतिष्ठित कराने का पूर्ण श्रेय राजा मानसिंह को है, जिसने लोकभाषा को स्तर से उठाकर ग्वालियरी भाषा (ब्रजभाषा) को राजसभा में सर्वप्रथम उच्च सिंहासन दिया था। आगरा के दीर्घकालीन निवास और तानसेन एवं रामदास जैसे गायकों के दिव्य संगीत ने राजा मानसिंह को भी अजभाषा-कवियों का प्रमुख आश्रयदाता बना दिया।
भारतीय गीत प्रायः मानसिंह-प्रवर्तित शैली के ध्रुवपद ही थे।' ध्रुवपद' के माध्यम से अकबरी युग में भी मानसिंह तोमर की गानशैली का प्रभाव बख्तर खां के द्वारा बीजापुर में पहुंचा। मानसिंह तोमर ने ही ध्रुवपद तथा धमार गायकी का प्रारम्भ किया।
मानसिंह ने युग की आवश्यकता को समझा और एक पारम्परिक प्रबन्ध 'ध्रुवपद' को लोकभाषा दी। ब्रजभाषा के माध्यम से इन ध्रुवपदों में लोक-भावना की अभिव्यक्ति हुई। नर-नारी का सनातन प्रेम इन ध्रुवपदों का विषय बना। विषय की दृष्टि से ये ध्रुवपद गजल का जबाब थे, फलतः यह सभी को अच्छे लगे।
इन्होंने पद परम्परा को भी नवजीवन दिया और विष्णु- भक्ति से युक्त पदों को 'विष्णुपद' कहा। ध्रुवपदों की परम्परा दरबारों में प्रतिष्ठित हुई और विष्णुपद-परम्परा ने हमें अष्टछाप के सूरदास, नन्ददास इत्यादि कवि दिये। विषय की दृष्टि से पद कव्वालियों का जवाब थे।
गीत रचना-'रागदर्पण' में मानसिंह को ध्रुवपद का आविष्कारक कहा गया है। इसका अर्थ यही सम्भव है कि ग्वालियरी-भाषा में लिखे हुए गीतों को शास्त्रीय संगीत के ढांचे में सर्वप्रथम मानसिंह तोमर ने डाला। इसने इस प्रयोजन के लिए सर्वप्रथम ग्वोलीयरी-भाषा में कविताएं लिखी, और इस तरह यह एक नवीन शैली का आविष्कार हुआ। भगवान कृष्ण से सम्बद्ध पदों का नामकरण मानसिंह तोमर ने 'विष्णुपद' किया। अन्य धार्मिक विभूतियों की प्रशंसा से युक्त पदों को 'स्तुति' कहा तथा प्रेम की अवस्थाओं के चित्रण से युक्तरचनाओं का नाम ध्रुवपद रखा।
मानसिंह के राज्यकाल में रचित रीति ग्रंथ मानसिंह तोमर के समय के कलाकार बैजू और बख्शू तथा उनके अनुयायी तानसेन के द्वारा रचित ध्रुवपदों में प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण था और ये ध्रुवपद जनता के प्रत्येक वर्ग का मन मोहनेवाले थे। दूसरे शब्दों में यही वे कृतियां थीं, जो बृजभाषा के दरबारी काव्य का आदिम नमूना थीं। मानसिंह के राज्यकाल के प्रायः पच्चीस वर्ष बाद कृपाराम ने संवत् 1598 (सन् 1541 ई.) में 'हिततरंगिणी' नामक ग्रंथ लिखा, जिसका विषय रसरीति है।
मानसिंह की मृत्यु सन् 1516 में हुई। इनकी मृत्यु से 134 वर्ष पश्चात् सन् 1650 ई. में चिन्तामणि त्रिपाठी ने अपना 'कविकल्पतरु' लिखा। चिन्तामणि को हिन्दी में रीति ग्रन्थों की अविरल एवं अखण्ड परम्परा का प्रवर्तक कहा जाता है। इस दृष्टि से 'मानकुतूहल' नायिका-भेद सम्बन्धी अध्याय एक विशिष्ट महत्व रखता है। ग्वालियर में ध्रुवपद शैली की शिक्षा के लिए मानसिंह तोमर ने एक संगीत विद्यालय स्थापित कर रखा था, जिसके प्रमुख आचार्य विजय जंगम नामक व्यक्ति थे।