नाथद्वारा परंपरा

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नाथद्वारा परंपरा

 नाथद्वारा परंपरा

नाथद्वारा, वैष्णव अथवा जयपुर परम्परा भारतीय सांगीतिक कलाओं के विकास में देवालयों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पखावज की नाथद्वारा परम्परा जिसे जयपुर अथवा वैष्णव परम्परा भी कहते हैं। के विकास में श्रीनाथजी के मन्दिर का बड़ा महत्व है। यह परम्परा चूंकि राजस्थान से जुड़ी हुई है, इसलिये कुछ लोग इसे राजस्थान घराना भी कहते हैं। इस परम्परा का आरम्भ सत्रहवीं शताब्दी में राजस्थान निवासी तीन भाइयों तुलसीदास, नरसिंह दास और हालू जी द्वारा हुआ। बाद में हालूजी आमेर आ गये। उनके दो पुत्र स्वामीजी और छवील दास हुए । स्वामीजी निःसंतान थे। छवील दास के पुत्र फकीर दास, फकीर दास के पुत्र चंद्रभान, चंद्रभान के पुत्र मानजी और मानजी के पुत्र रूपराम द्वारा इस परम्परा का विकास होता रहा। जयपुर शहर के संस्थापक राजा जयसिंह का राज्याश्रय रूपराम को प्राप्त था । सन् १७३५ में जोधपुर के महाराज अभय सिंह के निमंत्रण पर रूपराम जोधपुर चले गये। ये तांडव नृत्य के परणों के विशेषज्ञ थे। रुपराम के पुत्र वल्लभ दास ने अपने पिता के साथ-साथ पखावजी पहाड़ सिंह से भी सीखा था। पहाड़ सिंह के पुत्र जोहार सिंह और वल्लभ दास के बीच अच्छी मित्रता थी और ये दोनों आपसे में रचनाओं का आदन प्रदान किया करते थे।


सन् १८०२ में नाथद्वारा के शासक गिरधारी महाराज ने वल्लभ दास को नाथद्वारा आमंत्रित किया । वल्लभ दास नाथद्वारा आये तो यहीं के होकर रह गये। बड़ौदा नरेशमहाराज सयाजीराव गायकवाड़ के अनुरोध पर इन्होंने कुछ समय तक बड़ौदा दरबार को भी अपने पखावज से गुंजरित किया था, लेकिन फिर श्रीनाथजी के चरणों में लौट आये। इनका निधन 1849 में हुआ । इनके तीन पुत्र थे जिनमें चतुर्भुजजी की परम्परा आगे नहीं चली और उनका अधिकांश समय उदयपुर में बीता । अतः वल्लभ दास की गददी उनके दूसरे पुत्र शंकर लाल जी को मिली और तीसरे पुत्र खेमलाल उनके सहायक बने। कुछ समय बाद खेमलाल ने मृदंग सागर नामक एक पुस्तक का लेखन कार्य आरंभ किया, जिसमें उनके पुत्र श्याम लाल सहायक बने। लेकिन, पहले खेमलाल और उसके बाद श्याम लाल के निधन के कारण एक और मृदंग सागर अधूरा रह गया तो दूसरी और इस संसार से शंकर लाल को विरक्ति हो गई। अत: सन् 1971 में जन्में अपने पुत्र घनश्याम दास को श्रीनाथजी के मन्दिर में नियमित पखावज वादन का आदेश देकर वे तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े जो वास्तव में संगीत यात्रा थी। इस दौरान अनेक महान कलाकारों से उनकी भेंट हुई, संगीत संबंधी चर्चा हुई और गायन वादन के आयोजन हुए। यात्रा पूरी करके वे नाथद्वारा लौटे जहां 1987 में उनका निधन हो गया।


पिता के निधन के बाद नाथद्वारा परम्परा के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी उनके यशस्वी पुत्र पं घनश्याम दास पखावजी ने संभाली। उन्होंने मृदंग सागर पुस्तक का लेखन कार्य पूर्ण करके 1971 में उसे प्रकाशित कराते हुए इस परम्परा का चतुर्दिक प्रचार-प्रसार किया। स्वतंत्र वादन और संगति दोनों में दक्ष घनश्याम दास की ख्याति एक उत्कृष्ट रचानाकार के रूप में भी रही है। दुर्भाग्यवश सिर्फ 45 वर्ष की उम्र में इनका निधन हो जाने से इस परम्परा को काफी नुकसान हुआ। जिस समय घनश्याम दास का निधन हुआ उनके पुत्र पुरुषोत्तम दास सिर्फ नौ वर्ष के थे। उनका जन्म 7 जुलाई 1907 को । हुआ था। उन्होंने नौ वर्ष का उम्र तक जो सीखा था, और जो कुछ मृदंग सागर में था उसे साधकर इस परम्परा को एक नयी ऊंचाई दी।


अनेक लोगों के अनुरोध पर गुरु पुरुषोत्तम दास 1956 में दिल्ली आये थे। यहाँ दिल्ली के श्रीराम भारतीय कलाकेंद्र और फिर कथक केंद्र में 1982 तक उन्होंने पखावज सिखाया । उनसे पखावज सीखने वालों में लक्ष्मणदास वैष्णव, पद्मभूषण उमा शर्मा, स्व दुर्गा लाल, गुरु मुन्ना शुक्ला, गुरु राजेंद्र गंगानी और आभा भटनागर जैसे वरिष्ठ नृत्यकार हैं तो पं. तोता राम शर्मा, पं तेज प्रकाश तुलसी, स्व. रामलखन यादव, भीमसेन, भगवत उप्रेती, गौरांग चौधरी, पं. डालचंद शर्मा, एवं प्रकाश कुमावत सहित एनमेरी गेस्टन (कनाडा), वेन्दी पेट्रीक (न्यूयार्क) और जीना लाली (फ्रांस) जैसे पखावज में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कलाकार भी। केंद्रीय संगीत नाटक अकादेमी सम्मान और पद्मश्री के अलंकरण सहित इन्हें कई मान-समान मिले थे। नाथद्वारा में ही 21 जनवरी 1991 को ये नादब्रह्म में लीन हो गये। इन्होंने मृदंग वादन नामक एक पुस्तकका भी लेखन किया था जिसमें इस परम्परा की कई रचनाये संकलित हैं। पं. तोता राम शर्मा इस परम्परा के वरिष्ठ कलाकार हैं। उनके प्रमुख शिष्यों में पं. डालचंद शर्मा, मोहन श्याम शर्मा, तेजपाल शर्मा एवं फतेह सिंह गंगानी सहित इनके दोनों सुपुत्र राधेश्याम शर्मा एवं मोहन श्याम शर्मा के नाम उल्लेखनीय है। दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत संकाय में कार्यरत, कई सम्मानों से सम्मानित डालचंद शर्मा के कई शिष्य इस परम्परा के प्रचार-प्रसार में जुटे हैं।


वादन शैली की विशेषता


जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, पखावज वादन की यह शैली भगवान श्रीनाथजी के मन्दिर में विकसित हुई, अतः धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत विभिन्न प्रकार की साहित्यिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक रचनाये इस परम्परा में प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। इसमे देवस्तुति परण, मेघ परण, बाज, बहेरी परण एवं अनुलोम विलोम परण आदि प्रमुख हैं। चिलागं धुमकिट, धेत्ता, तक्का, थुंगा, धाकिटितक, ताकिटितक, धिन्न, तिटकिट तकता, किटितक धुं थुं, क्रिधेतृतकिटध, कुकू, खिरं, थिर्र, तरांग, धिकधिलांग, दलदल, दिणकता, तकिटतका धादीता आदि वर्ण समूह इस शैली के वादन में बार- बार ध्वनित होते हैं। अन्य परम्पराओं में जहां तिट पर अधिक बल दिया जाता है, वहीं इस परम्परा में किट और किटी पर ता दी थुं ना किटितक गदिगन था इस प्रकार के बोलो द्वारा विभिन्न प्रकार की लयकारियों एवं यतियों के विभिन्न प्रकारों को भी इस परम्परा में प्रस्तुत किया जाता है। धिननक का भी इस परम्परा में सुंदर प्रयोग होता है। इस परम्परा में ता बायें पर और क दायें पर बजाता है। इस परम्परा की वादन शैली कठिन एवं विभिन्न प्रकार की लयकारियों के साथ-साथ सरलता, सहजता, मधुरता, बोलों वर्णों की सुस्पष्टता एवं रचनाओं की उत्कृष्टता के लिये विख्यात है।


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