नाना पानसे एवं उनकी परम्परा :
पखावज वादन के क्षेत्र में नाना पानसे और उनकी गौरवशाली परम्परा का विशेष महत्व है । नाना पानसे का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जनपद के वाई नामक स्थान के पास बनधन में हुआ था। इनके जन्म काल के विषय में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। लेकिन इतना निश्चित है कि कोदऊसिंह के समकालीन पखावजी बाबू जोध सिंह के ये शिष्य थे। वाई में रहते हुए पखावज वादन की प्रथम शिक्षा इन्होने अपने पिता से ही ली। इनका परिवार कीर्तनकारों का धार्मिक परिवार था, और उस परिवार में किर्तन के साथ पखावज की संगति हुआ करती थी। इसके बाद पुणे के मान्यावा कोडीतकर (कोटडीकर), चौण्डे बुवा, मार्तण्ड बुवा, बाबू जोधसिंह और योगीराज माधव स्वामी सेइन्होंने पखावज का ज्ञानार्जन किया। कुछ लोगों के अनुसार इनका वास्तविक नाम नारायण थोरपे था, और पांच सौ लोगों का पखावज सिखाने के कारण इन्हें पानसे कहा गया। कुछ लोगों के अनुसार इनके पुकारने का नाम नाना था, और पानसे नामक किसी व्यक्ति की कीर्तन मंडली में ये पखावज वादन करते थे, अतः ये नाना पानसे कहलाने लगे। लेकिन इन बातों का कोई प्रामाणिक आधार नहीं उपलब्ध है।
नाना पानसे को इंदौर के राजा का संरक्षण प्राप्त था। एक बार ग्वालियर के राजा जब इंदौर आये और उन्होंने नाना का पखावज सुना तो दंग रह गये। उन्होंने नाना को ग्वालियर ले जाने का बहुत प्रयास किया और तरह-तरह का प्रलोभन भी दिया। लेकिन, नाना नहीं डिगे। वे शुरू से अंत तक, जीवनपर्यंत इंदौर दरबार में ही रहे। यह नाना के चरित्र का एक उज्जवल और अनजाना पक्ष है। इंदौर के कृष्णपुरा इलाके में जहां नाना रहा करते थे, वहां आज भी उनके नाम से पानसे गली है। अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का परिचय देते हुए उन्होंने पखावज वादन की पारम्पारिक शैली में अनेक महत्वपूर्ण सुधारात्मक परिवर्तन किये इन्हें संगीत के क्रियात्मक पक्ष के साथ-साथ शास्त्र पक्ष का भी अच्छा ज्ञान था। इन्होंने प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करके गणितीय आधार पर अनेक तालो के ठेकों का नवीनीकरण किया तो कई विशिष्ट प्रकार के परणों की भी रचना की। विभिन्न तालों में विभिन्न प्रकार के परनों की रचना करके इन्होंने न केवल पखावज अपितु तबले के भंडार को भी समृद्ध किया है। सांगीतिक शिक्षा के सरलीकरण हेतु मात्रा बद्ध, पद्धति का निर्माण करके अंगुलियों पर मात्रा गिरने की पद्धति इन्होंने ही आरंभ की थी।
नाना पानसे को पखावज के साथ-साथ तबले का भी अच्छा ज्ञान था। कथक नृत्य की भी अच्छी जानकारी थी उन्हें उन्होने पखावज के आधार पर तबले के लिये उपयोगी सिद्ध होने वाली अनेक बोलों की भी रचना की थी। उन्होंने तबला वादन की एक नवीन शैली भी विकसित की थी, और तबले तथा पखावज के साथ-साथ कथक नृत्य के भी अनेक शिष्य तैयार किये थे। कोदऊ सिंह और नाना पानसे के गुरु बाबू जोध सिंह मूलतः एक ही परम्परा से सम्बद्ध थे, किंतु स्वाभावगत भिन्नता के कारण इनकी वादन शैली भी भिन्न हो गई थी। नाना भी मन से बड़े ही कोमल, शांत, विनम्र, सरल, उदार एवं अभिमान रहित थे। इसलिए इनकी वादन शैली भी इनके स्वभाव की ही तरह कोमल, मधुर और कर्णप्रिय हुई। इन्होंने सुदर्शन नामक एक नवीन ताल की भी रचना की थी। अपने निराभिमानी स्वाभाव के कारण नाना ने न तो किसी के साथ कोई प्रतियोगिता की और न तो पराजित किया। जबकि, अपने समय के ये सर्वश्रेष्ठ पखावजी थे।
नाना पानसे ने सैकड़ों लोगों को मुक्त हस्त पखावज वादन की शिक्षा दी थीकई लोग उनके शिष्यों की संख्या पांच सौ से अधिक बताते हैं। आज महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत में जो पखावज बज रहा है वह नाना और उनकी शिष्य परंपरा के कारण ही बज रहा है। नाना पानसे के महत्त्वपूर्ण शिष्यों में उनके सुपुत्र बलवंत राव पानसे और दोहित शंकर भैया पानसे सहित पं. सखाराम बुवा आगले (इंदौर), पं. वामनराव चंदवडकर (हैदराबाद), पं. बलवंतराव वैध (जमखडजी), पं. शंकरराव अलकुटकर (मुंबई), महाराज भाऊ साहब (सतारा), पं. गोविंद राव राजवैध (इंदौर), एवं पं. बलवंतराव पाटवे आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। नाना पानसे की प्रशिष्य परंपरा भी बहुत यशस्वी हुई। इनके प्रशिष्यों में पं. अम्बादासपंत आगले (इंदौर), पं. गोबिन्दराव बुरहानपुरकर (बुरहानपुर), पं. गुरुदेव पटवर्धन, पं. बाबूराव गोखले (मुंबई), राजवैध बंधु चंद्रकांत, विरेन्द्र कुमार, केशवराव तथा शिवनारायण (इंदौर), राव कौली (मुंबई), शंकर भैया एवं चुन्नीलाल पवार (इंदौर), रंगनाथराव देगलूरकर (महाराष्ट्र), मार्तंड बुवा (हैदराबाद) आदि के नाम विशेष महत्वपूर्ण हैं। इस परम्परा से संबद्ध कुछ अन्य श्रेष्ठ नाम इस प्रकार है कृष्णदास बनातवाला (बुराहनपुर), कोलबाजी पिंपलघरे (नागपुर), अर्जुन सेजवाल (मुंबई), विनायक धांधलेकर गोस्वामी कल्याण राम, गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज तथा देवकी नंदन महाराज आदि। संगीत विद्वानों के मतानुसार नाना पानसे का देहावसान १९ वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ। नाना पानसे के कुछ शिष्यों ने भी उनकी परम्परा का अनुकरण करते हुए तबला और पखावज विषय पर पुस्तकों का लेखन किया। इनमें वर्तमान भातखंडे संगीत सम विश्वविद्यालय लखनऊ के पूर्व प्राध्यापक स्व. पं. सखाराम मृदंगाचार्य की पुस्तक मृदंग तबला शिक्षा तथा मृदंगकेशरी पं. गोविंदराव बुरहानपुरकर की तीन भागों में विभक्त मृदंग तबला वादन सुबोध तथा भारतीय ताल मंजरी विशेष उल्लेखनीय हैं।
नाना पानसे की वादन शैली सरल, मुलायम कर्णप्रिय एवं द्रुतगामी थी। उनके द्वारा विकसित वादन शैली में अत्याधिक लम्बी-लम्बी परनों एवं क्लिष्ट तथा कठोर बोलो का अभाव दिखता है। उनकी वादन शैली चमत्कारपूर्ण नहीं अपितु चित्ताकर्षक थी। नाना बुद्धि पक्ष को आतंकित करने की अपेक्षा हृदय पक्ष को जीतने में अधिक विश्वास रखते थे। धिरधिरकिटितक, तकतक, धुमकिट, किटितक, धड़नग, तिरकिट, तगन, गदिगन जैसे बोलों का बाहुल्य उनकी रचनाओं में दिखता है। लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि पखावज के मूल और पारंपरिक बोलों को उन्होंने बिल्कुल ही छोड़ दिया हो। आवश्यकतानुसार यंत्र-यंत्र उनका भी प्रयोग उन्होंने अपनी रचनाओं में किया है किन्तु अपने बाज को उस पर केंद्रित नहीं किया। पानसे परंपरा के अधिकांश बोल अत्यन्त द्रुतलय में बजने वाले होते हैं। लय और लयकारियों का खूबसूरत प्रयोग भी इस बाज की एक विशेषता है । आड़ी लय और तीन-तीन शब्दों के समूह वाले बोलों का प्रयोगभी नाना पानसे की रचनाओं में खूब मिलता है। तबला एवं पखावज के वर्णों की निकटता भी इस वादन शैली में देखने को मिलती है।