राग समय चक्र
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में हर राग गाने का एक निश्चित समय निर्भर होता हैं। और यह निश्चित समय राग के वादी संवादी-अनुवादी स्वरों पर निर्भर होता हैं। इस का कारण यह हैं कि हर राग अपने स्वर एक सुनिश्चित समय पर दोहराने से उस राग का प्रभाव गानेवाले के ज़रिये, एक नया मकाम बनाता है। लेकिन कई राग प्राकृतिक होते हैं, या कहिये ऋतुओं से प्रभावित होते हैं, जैसे मल्हार अंग में गाये जाने वाले राग, ये राग वर्षा ऋतु में कभी भी किसी भी समय गाये-बजाये जा सकते हैं। पारंपारिक प्रणाली को ध्यान में रक्खे तो राग चार ऋतुओं में बांटे गये हैं, जैसे-
• वर्षा ऋतु - राग मेघ
• शरद ऋतु - राग भैरव
• ठंडी ऋतु - राग मालकौंस
• बसंत ऋतु - राग हिंडोल
प्रहर अनुसार राग गाने का समय
दिन के 24 घंटों को दो हिस्सों में बांटा गया है।
• रात 12 बजे से दोपहर 12 बजे तक : इस को पूर्व भाग कहते है, और इस समय के दोहरान गाये जाने वाले रागों को पूर्व राग कहते है।
• दोपहर 12 बजे से रात 12 बजे तक : इस को उत्तर भाग कहते है, और इस समय के दोहरान गाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहते है।
सप्तक के स्वर 'सा' से 'म' तक (सा रे ग म ) को राग का पूर्वांग कहते है, और सप्तक के स्वर 'म' से तार सप्तक के 'सां' तक (म-प-ध-नी-सां) को राग का उत्तरांग कहते हैं।
• पूर्वांग वादी राग:- जिस राग का वादी स्वर पूर्वांग में होता है, उसे पूर्वांग वादी राग कहते है। यह राग दिन के पूर्व भाग में गाए- बजाए जाते हैं। जैसे के रात के 12 बजे से दिन के 12 बजे तक।
• उत्तरांग वादी रागः जिस राग का वादी स्वर उत्तरांग में होता है, उसे उत्तरांग वादी राग कहते है। यह राग दिन के उत्तर भाग में गाए-बजाए जाते हैं। जैसे के दिन के 12 बजे से रात के 12 बजे तक। इस का मतलब यह, की, अगर हम राग का वादी स्वर जानते है, तो उस राग के गाने का समय का अंदाजा लगा सकते हैं।
स्वर और समय
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के रागों को, उनके 'स्वर' और 'समय' अनुसार तीन हिस्सों में बांट दिये है।
• 'कोमल ऋषभ' और 'कोमल धैवत' वाले रागः इन रागों को संधिप्रकाश राग के नाम से जाना जाता हैं। इस के भी दो भाग हैं-
सा) प्रातः कालीन संधिप्रकाश राग, जो प्रात: काल के समय गाए जाते हैं।
रे) सायंकालीन संधिप्रकाश राग, जो सायंकाल के सामय गाये जाते है।
संधिप्रकाश रागों में मध्यम 'म' की एक विशेष भूमिका होती है। ज्यादातर प्रात: कालिन संधिप्रकाश में 'शुद्ध म' का प्रयोग होता है। उदा. राग भैरव
ज्यादातर सायंकालिन संधिप्रकाश राग में 'तीव्र म' का प्रयोग होता है। उदा. राग मारवा
दुसरी बात यह है के ज्यादातर संधिप्रकाश रागों में 'ऋषभ कोमल' और 'गांधार' और 'निषाद' शुद्ध लगते है। धैवत शुद्ध या कोमल हो सकता है।
• 'शुद्ध ऋषभ' और 'शुद्ध धैवत' वाले राग : ये रागों का गाने का समय संधिप्रकाश कालिन राग के पश्चात होता हैं। और ये मुख्यतः कल्याण, बिलावल, खमाज ठाठ के राग होते हैं। प्रात:कालिन संधिप्रकाश रागों के पश्चात शुद्ध धैवत का प्रभाव बने लगता है। इस वजह इस कक्षा मे गाए-बजाने वाले राग सुबह 7 से सुबह 10 बजे तक और शाम 7 से रात 10 बजे तक गाए जाते है। इन रागों में मुख्यत: गांधार शुद्ध होता है।
सुबह 7 बजे से सुबह 10 बजे की कक्षा में गाए जान वाले रागों में शुद्ध मध्यम का प्राधान्य होता है। उदा. राग बिलावल, राग देसकार
शाम के 7 से रात 10 बजे की कक्षा में गाए जानेवाले रागों में तीव्र मध्यम का प्राधान्य होता है। उदा. राग यमन, राग भूप
• 'कोमल गंधार' और 'कोमल निषाद' वाले रागः ये राग शुद्ध ऋषभ और शुद्ध धैवत वाले रागोंके पश्चात गाए-बजाए जाते है। ये राग सुबह 10 से दोपहर 4 बजे तक गाए जाते है। उदा. राग आसावरी, राग जौनपुरी। और रात 10 बजे से प्रात: 4 बजे तक गाए जाते है। उदा. राग बागेश्री, राग जयजयवंती, राग मालकंस
इन सभी रागों में गांधार निश्चित रुप से कोमल ही होता है। ऋषभ तथा धैवत शुद्ध या कोमल हो सकते है।
समय अनुसार गाने वाले रागों में मध्यम स्वर की विशेषता
सामान्यतः सुबह के रागों में शुद्ध मध्यम का प्राधान्य होता है। कोमल ऋषभ और कोमल धैवत वाले रागों में यदि शुद्ध मध्यम का प्राधान्य हो, तो, उन रागों को प्रात: कालिन संधिप्रकाश राग कहा जाता है।
शाम के रागों में तीव्र मध्यम का महत्व होता है। इस कारण संध्याकालिन रागों में, जैसे के राग पूर्वी, श्री, मुलतानी में तीव्र मध्यम का उपयोग होता है और वह रात्री के दुसरे प्रहर तक दृष्टीगोचर होता है। उस वक्त बिहाग राग जैसे राग में शुद्ध मध्यम की विशेषता बढती हुई नजर आती है।
प्रातःकालिन रागों में (प्रात: कालिन संधिप्रकाश रागों में) शुद्ध मध्यम वाले राग, (राग भैरव, राग - कालिंगडा) पहले आते है, उसके बाद दोनों मध्यम वाले राग, जैसे राग रामकली, राग ललित आते है। इसके बाद वक्त आता है शुद्ध ऋषभ और शुद्ध धैवत वाले रागों का। इन रागों में शुद्ध मध्यम का महत्व होता है (राग बिलावल) । फिर बारी आती है कोमल गंधार वाले रागों की। इनमें दोनो मध्यमों का प्रयोग होता है। कहीं पर शुद्ध मध्यम, तो कही पर तीव्र मध्यम का प्रभाव बढ़ता है।
इस प्रकार अनेक चिजों को ध्यान रखते हुए राग गाने का समय सुनिश्चित किया जाता है, और समय के अनुसार राग चयन कर के गाया जाये तो उसका प्रभाव हमे निश्चित रूप से नज़र आता है।
किंतु समय चक्र के अनुसार राग गाना यह महफल तक ही सिमित है। किसी भी राग का रियाझ हम किसी भी समय कर सकते है।