पं. गोविन्दराव देवराज बुरहानपुरकर :
पं. गोविंदराव देवराज बुरहानपुरकर का जन्म सन् १८७५ में मध्यप्रदेश के निमाड़ जिले के बुरहानपुर नामक स्थान में हुआ था। बहुमुखी प्रतिमा के धनी गोविंदरावजी ने पखावज वादन की शिक्षा नाना साहब पेशवा के गुणी शिष्य पं. सखारामजी से प्राप्त की, ध्रुवपद-धमार की शिक्षा हरहर बुआ कोपरगाँवकर से, तथा तबला वादन की शिक्षा हैदराबाद के पं. वामनरावजी से प्राप्त की।
पं. गोविंदरावजी पखावज और तबला दोनो में समान अधिकार रखते थे । गोविंदराव का जुड़ाव संगीतमहर्षी पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर से होने के बाद इन्होंने उनके साथ कई मंचों पर संगति की, साथ ही बर्मा, श्रीलंका आदि देशो की सफल संगीत यात्राऐं भी की। गोविंदराव जी ने एक अच्छे लेखक के रुप में भी अपनी प्रतिभा का उत्कृष्ट परिचय दिया है। तीन भागों में लिखित "मृदंग तबला वादन सुबोध" एवं "भारतीय ताल मंजरी" नामक इनकी पुस्तकों ने तबले एवं पखावज के विद्यार्थियों का अच्छा मार्गदर्शन किया है।
गोविंदरावजी ने प्रख्यात नर्तक उदयशंकर द्वारा निर्मित फिल्म कल्पना तथा भारत सरकार के फिल्म डिवीजन के लिये भी अनेक बार तबला एवं पखावज वादन किया है। "हिज मास्टर्स वॉइस" ध्वनि मुद्रिका कम्पनी ने इनके भावपूर्ण वादन का ध्वनि मुद्रण कर उसे प्रसारित भी किया। इनकी कई ध्वनि मुद्रिकायें उपलब्ध है।पं. गोविंदराव देवराज बुरहानपुरकर को उनके जीवन काल में कई मान सम्मान मिले थे, जिनमें प्रमुख है गांधर्व महाविद्यालय (दिल्ली) के स्वर्ण जयंती समारोह में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपती डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा उनका सम्मान और अभिनंदन, तथा १९२९ में अहमदाबाद में आयोजित संगीत सम्मेलन में लौह पुरूष सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा प्रदान की गई मृदंगाचार्य की उपाधि । मृदंगाचार्य गोविंदराव बुरहानपुरकर का देहावसान २० जून १९५७ को ८२ वर्ष की उम्र में हुआ।
पं. पर्वत सिंह :
प्रख्यात पखावज वादक पर्वत सिंहजी का जन्म सन् १८७९ के लगभग ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में पखावज वादकों के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इनके पिता सुखदेव सिंह और प्रपितामह, जोरावर सिंह अपने समय के प्रतिष्ठित पखावजी और ग्वालियर राजदरबार के रत्नों में से थे। पर्वत सिंह बचपन से ही अपने पिता सुखदेव सिंह के साथ संगीत यात्राओं पर जाने लगे थे, अतः उन्हे बचपन से ही अच्छे कलाकारों से मिलने और उन्हें सुनने का सुयोग मिलने लगा था। यह अनुभव बाद में उनके बहुत काम आया। और पर्वत सिंह अपनी युवावस्था में ही एक सुयोग्य और प्रतिभाशाली पखावजी माने जाने लगे ।
पर्वत सिंह की युवावस्था मायानगरी मुंबई में बीती। मुंबई में बिताये इन १५ वर्षों में इन्होंने देश के अनेक महान् कलाकारों के साथ संगति करके उन अनुभवों के आधार पर अपनी पखावज को एक नयी पहचान और नयी उड़ान दी। लेकिन बाद में अपने पिता सुखदेव सिंह के निधनों परात ये ग्वालियर लौट आये और १९१७ में ग्वालियर दरबार से दरबारी कलाकार के रुप में जुड़ गये। इनकी कला से प्रमाणित होकर दरभंगा के महाराजा ने भारत धर्ममंडल के अध्यक्ष के तौर पर १९२६ में इन्हें विद्या कला विशारद की उपाधि से विभूषित किया। पर्वत सिंहजी लय ताल के प्रकांड विद्वान थे। श्री पर्वत सिंह के बड़े पुत्र माधव सिंह भी अच्छे पखावज वादक थे और उन्हें भी ग्वालियर के राजदरबार का संरक्षण प्रादत था। पर्वत सिंह के होते पुत्रश्री गोपाल सिंह भी उच्छे पखावज वादक थे, लेकिन उन्होंने गिटार पर शास्त्रीय संगीत की सफल प्रस्तुति के लिये विशेष ख्याति अर्जित की थी। श्री पर्वत सिंह का निधन १८ जुलाई १९५१ को ग्वालियर में हुआ ।