राग वर्गीकरण भाग-3
पिछले ब्लॉग मे हमने बिलावल और कल्याण थाट के बारेमे जानकारी प्राप्त की। इस ब्लॉग मे जानेंगे बाकी थाट के बारे मे...
(3) खमाज थाटः दो निषाद (शुद्ध, कोमल) और बाकी स्वर शुद्ध राग जयजयवंती में दो गंधार और दो निषाद का प्रयोग किया जाता है, लेकिन इस राग का थाट खमाज है।
(4) काफी थाट ('ग' कोमल, 'नी' कोमल बाकी सर्व स्वर शुद्ध): भीमपलास राग के कोमल निषाद को शुद्ध निषाद कर के पटदीप राग की निर्मिति हुई है। पटदीप राग में कोमल गंधार और बाकी स्वर शुद्ध होते है । भीमपलास राग कां थाट काफी है। ('ग नी' कोमल) इसलिए पटदीप को भी काफी थाट दे दिया गया है। बागेश्री राग का थाट काफी है लेकिन उसी स्वरुप का राग रागेश्री (कोमल 'नी', शुद्ध 'ग') का थाट खमाज है।
(5) आसावरी थाट ('ग-ध-नी' कोमल, बाकी स्वर शुद्ध): मालकन्स राग में 'ग-ध-नी' कोमल होते हुए इसका थाट भैरवी है। कोमल रिषभ आसावरी में सभी स्वर कोमल होते हुए ('रे-ग-ध-नी' कोमल) राग स्वर समानता के तत्वानुसार इसका थाट आसावरी है। पं. भातखण्डे जी ने कभी राग स्वर समानता या कभी राग स्वरुप समानता का आधार थाट वर्गीकरण प्रणाली में किया है। इसी कारण विद्यार्थियों को सम्भ्रम होता है।
(6) भैरव थाट ('रे ध' कोमल, बाकी स्वर शुद्ध): रामकली राग में, 'रे' कोमल दो मध्यम (शुद्ध. तीव्र), दो निषाद (शुद्ध, कोमल) का प्रयोग किया जाता है। किन्तु इस राग का थाट भैरव है। (7) भैरवी थाट ('रे-ग-ध-नी' कोमल): तोड़ी अंग का प्राबल्य होनेवाला राग बिलासखानी तोड़ी स्वर समानता तत्व के अनुसार भैरवी थाट में आता है। राग बसंत मुखारी में शुद्ध गंधार होते हुए इस राग का थाट भैरवी है।
(8) मारवा थाट ('रे' कोमल, 'म' तीव्र, बाकी स्वर शुद्ध): राग जयत में मध्यम वर्ज्य है। रागस्वरूप भी मारवा अंग से भिन्न होते हुए इस राग का थाट मारवा है।
(9) पूर्वी थाट ('रे ध' कोमल, 'म' तीव्र): पूर्वी राग में 'रे ध' कोमल और दो मध्यम स्वर (शुद्ध, तीव्र ) आते हैं। राग पूर्वी जनक राग होते हुए भी इसके थाट और रागों के स्वरों में समानता नहीं है।
(10) तोड़ी थाट ('रे-ग-ध' कोमल, 'म' तीव्र): राग भूपालतोड़ी में 'म', 'नी' वर्ज्य है। लेकिन इस राग का थाट तोड़ी है। राग लाचारी तोड़ी आसावरी अंग से प्रयुक्त ये राग तोड़ी थाट में आता है। दो गंधार (शुद्ध, कोमल), दो धैवत (शुद्ध, कोमल), 'रे', 'म' शुद्ध होने के पश्चात इस राग का था तोड़ी है।
उपरोक्त विचारोंसे यह स्पष्ट होता है कि पं. भातखण्डे जी के दस थाट वर्गीकरण में कुछ दोष है। हर एक थाट में कुछ राग, नियम के विरूद्ध लिए गए है। राग स्वर समानता या राग स्वरुप समानता इन दोनों तत्वों का उपयोग उचित ढंग से नहीं किया गया है। लेकिन यह पद्धति समझने में आसान होने के कारण निश्चित रूप से लोकप्रिय हुई है।राग-रागांग वर्गीकरण पद्धतिः राग स्वर समानता या राग स्वरुप समानता इन दोनों तत्वों के आधार पर पं. भातखण्डे जी ने राग वर्गीकरण पद्धति का निर्माण किया। प्राचीन ग्रंथों में मतंग ऋषि कृत बृहद्देशिय ग्रन्थ में रागांग का पहला उल्लेख हुआ ऐसा माना जाता है। आधुनिक काल में विद्वानों द्वारा रागांग पद्धति को सर्वाधिक मान्यता दी गयी है। रागांग पद्धति स्वर समानता की अपेक्षा स्वरुप समानता पर आधारित है। राग की सामान्य पहचान स्वरों द्वारा होती है। किन्तु सूक्ष्म पहचान विशिष्ठ स्वरसमूह द्वारा ही संभव है। थाट राग का आधार है, तो रागांग राग का सौंदर्य प्रतीत करता है। क्या है रागांग पद्धति ? रागांग का शाब्दिक अर्थ है राग का अंग अर्थात प्रस्तुत कुछ विशेष स्वरसंगती के द्वारा राग का स्पष्ट रूप दिखाई देना । मूल राग या सिद्ध रागोंकी स्वरावली अन्य दुसरे रागों में भी दिखाई देती है, तो वही उस राग का रागांग कहलाता है। पं. खरे जी ने इस पद्धति में स्वरों के चलन पर ध्यान देते हुए विशिष्ट स्वरसमूह के 30 रागों का चयन किया। इन रागों के महत्व स्वर समूह अन्य दूसरे रागों में आते है, उनका समूह तैयार किया। जैसे ग म रे सा बिलावल अंग, गमरेसा भैरव अंग । यह पद्धति - से राग स्वरुप का निश्चित बोध होता है। लेकिन रागांग वाचक स्वर समूह का उल्लेख नहीं मिलता। इससे मतमतान्तर होता है। रागांग पद्धति में पं. भातखण्डे जी के दस थाट है और 20 रागोंको पं. खरे जी ने खोजकर 30 रागोंकी रागांग पद्धति निर्माण की।
'भैरव', 'बिलावल', 'कल्याण', 'खमाज', 'काफी', 'पूर्वी', 'मारवा', 'तोडी', 'आसावरी', 'भैरवी' यह पं. भातखण्डे जी के 10 थाट के अतिरिक्तः 'सारंग', 'भीमपलासी', 'ललित', 'सोरठ', 'पीलू', 'विभास', 'नट', 'श्री', 'बागेश्री', 'केदार', 'शंकरा', 'कानड़ा', 'मल्हार', 'हिंदोल', 'भूप', 'आसा', 'बिहाग', 'कामोद', 'भटियार', 'दुर्गा'। यह कुल 30 रागांग मिलते हैं। कुछ उदहारण:
नट - सारे, रेग, गम, मप यह रागांग नट के इतर प्रकारों में भी गया जाता है।'शुद्ध नट', 'केदार नट', 'छाया नट', 'सावनी नट' आदि।
कानड़ा - सा, गऽऽमरेसा, नीपमप यह कानड़ा का प्रमुख रागांग है। 'बागेश्री कानड़ा', 'दरबारी कानड़ा', 'सुघराई कानड़ा', 'नायकी कानड़ा' आदि रागों में कानड़ा अंग का प्रयोग होता है। रागोंकी संख्या बढ़ने से रागांग पद्धति में मूलराग (स्वयं राग) का चयन करना कठिन हो गया। यह प्रणाली मिश्र राग, संकीर्ण रागोंके लिए उलझन निर्माण करती है। इन प्रकार के रागों में कौन से राग स्वयं राग होंगे? इसका सम्भ्रम होता है। संगीत छात्रोंके लिए रागांग पद्धति अधिक उपयुक्त है । यदि रागांग की संख्या बढ़ाई जाये तोह राग स्वरुप समझने में अधिक सुलभता आएगी। राग वर्गीकरण पद्धति अनेक विद्वानोंने प्राचीन ग्रन्थ के आधार पर और अपनी बुद्धिकुशलता से निर्माण की। पं. भातखण्डे जी और पं. खरे जी की थाट पद्धति संगीत विद्यार्थियों में विशेष लोकप्रिय है।