राग वर्गीकरण भाग-2
2) मध्य काल (13वी सदी से 17 वी सदी तक )
इस मध्यकाल में जाती गायन नष्ट होकर राग गायन प्रचलित हुआ। पं. शारंग देव कृत 'संगीत रत्नाकर' ग्रन्थ संगीत का आधार ग्रन्थ हुआ। शुद्ध छायालय एवं संकीर्ण राग वर्गीकरण: शुद्ध सालग संकीर्ण रागवस्तु त्रिविधा स्मृताः । अर्थात 'शुद्ध', 'सालग' ('छायालग') और 'संकीर्ण' इन तीन वर्गों में रागोंको विभाजित किया गए है। शुद्ध रागः जिस राग में अन्य किसी राग की छाया नहीं दिखाई देती, उस राग को शुद्ध राग कहते हैं। उदा.: भूपाली, काफी, कल्याण, तोड़ी आदि ।
छायालग रागः
जिस राग में किसी अन्य राग की छाया दिखाई देती है, वह राग छायालग राग कहलाता है। उदा.: बिहागड़ा, शुद्धकल्याण, तिलककामोद आदि ।
संकीर्ण रागः
जिस राग में दो या अधिक रागों का मिश्रण होता है. उस राग को संकीर्ण राग कहते हैं। दशविध राग वर्गीकरण: पं. शारंगदेव ने रागोंको निम्न दस भागों में बाँटा है। उदा.: पटमंजिरी, खट, नन्द, आदि । 'ग्रामराग', 'राग', 'उपराग', 'भाषा', 'विभाषा', 'अंतरभाषा', 'रागांग', 'भाषांग', 'क्रियांग', 'उपांग' इन में प्रथम छह वर्ग मार्गी संगीत अथवा 'गांधर्व संगीत' के अंतर्गत आते हैं। और अंतिम चार देशी अथवा गान संगीत के अंतर्गत आते हैं। वास्तव में इनकी स्पष्ट और विस्तृत व्याख्या किसी ग्रन्थ में नहीं मिलती और कुछ मिलती है वे आपस में एक दूसरे के विरोधी है। रागरागिनी वर्गीकरण: संगीत के प्राचीन रचनाकारोंने राग का वर्गीकरण राग 'रागिनी', 'राजपुत्र', - 'राजपुत्रवधु' इन नामोंसे किया था। रागोंके इस पारिवारिक वर्गीकरण का सूत्रपात नारदकृत 'संगीत मकरंद से माना जाता है। गंभीर प्रकृति के रागोंको 'पुरुष राग', कोमल प्रकृति के रागोंको 'स्त्री राग' या 'रागिनी' और चंचल प्रकृति के रागोंको 'रागपुत्र' या 'राजपुत्रवधु' कहा गया।
राग-रागिनी पद्धति में प्रमुख रूप से चार विद्वान ग्रंथकारों के मत प्रचलित रहे हैं।
(1) शिवमत (सोमेश्वर मत) - 6 राग प्रत्येक राग की 6 रागिनी = 36 रागिनी
(2) कल्लिनाथ मत - 6 राग प्रत्येक राग की 6 रागिनी = 36 रागिनी
(3) भरत मत 6 राग - प्रत्येक राग की 5 रागिनी = 30 रागिनी
(4) हनुमत मत 6 राग प्रत्येक राग की 5 रागिनी = 30 रागिनी उपरोक्त मतों में शिवमत (सोमेश्वर जी) और कल्लिनाथ ने मुख्य राग छह मानकर हर एक राग की छह रागिनियाँ मानी है। उनके मतोंसे 36 रागिनियाँ है। भरत और हनुमत जी के अनुरार मुख्या राग 6 मानकरप्रत्येक राग की 5 रागिनियाँ है। उनके मतोंसे 30 रागिनियाँ होती है। भरत के मत से रागरागिनी के आठ पुत्रराग और आठ पुत्रवधु राग मने गए। हनुमत जी ने पुत्रराग और पुत्रवधु राग नहीं चार ग्रन्थकरों में एकमत नहीं था। उपरोक्त राग रागिनियों का वर्गीकरण किस आधार पर किया गया यह कहना कठिन है। राग-रागिनी वर्गीकरण प्रणाली में रागोंके स्वरों की समानता या समप्रकृतिक रागों में समानता का तत्व नहीं था। इन राग-रागिनियाँ और प्रचलित रागों में कुछ समानता नहीं है। पटना के मुहम्मद रज़ा कृत 'नगमाते आसफी' नामक 2 ग्रन्थ में उपरोक्त चारों ग्रंथकारों का मत अशास्त्रीय माना। उनके मत के अनुसार राग और रागिनी के स्वरों में कुछ समानता होनी आवश्यक है और उनका यह मत उचित है। मेल राग वर्गीकरण: 13 वी सदी से मेल (थाट) राग वर्गीकरण पद्धति प्रचलित हुई लेकिन 17वी सदी तक वह पूरी विकसित हुई। मध्यकाल खंड में रागोंका वर्गीकरण मेल पद्धतिसे किया जाता था। मेल तथा थाट एक ही है, आधुनिक कालखंड में थाट पद्धति इस नाम से लोकप्रिय है। अनेक विद्वानोंने मेल राग वर्गीकरण प्रणाली प्रचलित की। मध्यकालीन राजवर्गीकरण प्राचीन मूर्छना वर्गीकरण को विकसित रूप से माना जाता है। पं. लोचन कृत राग तरंगिणी इस ग्रन्थ में 15 वी सदी 12 मेल का स्वरमेल कालनिधि इस ग्रन्थ के ग्रंथकार पंडित रमामाल्य जी ने 20 मेल स्वीकार किए। सदी 1660 के आसपास पं. व्यंकटमखी ने दक्षिण पद्धति के आधार पर संगीत का 'चतुर्दंड प्रकाशिका' नामक ग्रंथ निर्मित किया । उन्होंने इस ग्रन्थ में शुद्ध विकृत 12 स्वरोंसे 72 मेल थाट की निर्मिति गणिति सिद्धांतों द्वारा सिद्ध की। सदी 1660: उपरोक्त ज्ञान के अनुसार यह अनुमान होता है की मेल (थाट) राग वर्गीकरण पद्धति महत्वपूर्ण है और इस पद्धति का स्वीकार अपरिहार्य है।
(3) आधुनिक काल (18वी सदी से आजतक ) थाट रागवर्गीकरण - थाट संकल्पना 12 शुद्ध तथा विकृत स्वरों में से विशिष्ट नियमों के अनुसार 7 - स्वरों का आरोही क्रम होना या जिनसे राग निर्माण होने की क्षमता होनेवाला 7 स्वरों का समुदय थाट पद्धति में गायन किया नहीं जाता। इस पद्धति में स्वरसमूह वर्गीकृत किये जाते है। यह एक संपूर्ण जाती की आरोही सरंचना है ।18वी सदी में पंडित विष्णु भातखण्डे जी ने पं. व्यंकटमखी के 72 मेल (थाट) से प्रेरित होकर स्वयं थाट वर्गीकरण प्रणाली प्रस्थापित की। इनमें से केवल 10 प्रसिद्ध थाटों का चयन किया और रागोंको व्यस्थित रूप में वर्गीकृत करने का प्रयास किया। पं. भातखण्डे जी की थाट वर्गीकरण पद्धति के 10 थाट
थाट
बिलवाल, कल्याण, खमाज, काफी, भैरव, आसावरी.
स्वर सभी स्वर शुद्ध मध्यम तीव्र अन्य सभी स्वर शुद्ध 'नी' (अवरोही) कोमल अन्य सभी स्वर शुद्ध 'ग नी' कोमल अन्य सभी स्वर शुद्ध 'रे ध' कोमल अन्य सभी स्वर शुद्ध 'ग-ध-नी' कोमल अन्य सभी स्वर शुद्धभैरवी पूर्वी 'रे-ग-ध-नी' कोमल, म शुद्ध मारवा तोड़ी
'रे ध' कोमल, 'म' तीव्र अन्य स्वर शुद्ध 'रे' कोमल, 'म' तीव्र, अन्य स्वर शुद्ध 'रे-गध' कोमल, 'म' तीव्र, अन्य स्वर शुद्ध थाट के इन नियमों को ध्यान में रखते हुए पं. भातखण्डे जी ने प्रचलित और अप्रचलित रागोंका संग्रह किया। इन रागोंका वर्गीकरण करने के लिए उन्होंने 10 गट (समूह) तैयार किए। और उस गट के प्रमुख राग का नाम गट को दे दिया।
जैसे: (1) रिषभ', 'धैवत' स्वर कोमल, अन्य स्वर शुद्ध का एक गट भैरव थाट इस राग का जनक राग भैरव ही है, जो प्रमुख राग माना गया। और थाट का नामकरण भैरव थाट हुआ।
(2) 'ग नी' कोमल, बाकी स्वर शुद्ध काफी थाट आदि । इस पद्धति में पं. भातखण्डे जी ने राग स्वर साम्यता और राग स्वरुप साम्यता इन दो तत्वोंका विचार किया है। किन्तु आपने राग स्वर साम्यता तत्व को अधिकतम महत्व दिया। पं. व्यंकटमखी जी के 72 थाट की तुलना करते हुए पं. भातखण्डे जी की यह दस थाट राग वर्गीकरण प्रणाली उपयुक्त रही। संगीत का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को यह प्रणाली अधिक सुलभ रही। इसलिए हिंदुस्थानी संगीत में राग वर्गीकरण करने के लिए इस पद्धति का अवलम्ब किया गया है। शास्त्रीय संगीत में रागोंकी संख्या बढ़ने के कारण इस पद्धति में सभी रागोंको सुव्यवस्थित रूप से वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। कई रागोंको नियम के विरुद्ध विशेष थाट में लिया गया है। उपरोक्त 10 थाट में-
(1) 'ग' कोमल, 'म' तीव्र का कोई थाट नहीं है।
(2) 'रे' कोमल, 'म' तीव्र मारवा थाट है। किन्तु 'ग' कोमल, 'म' तीव्र, 'ध' कोमल, 'म' तीव्र या 'नी' कोमल, 'म' तीव्र इस वर्ग का थाट क्यों नहीं है? यह सम्भ्रम है।इस प्रणाली के गुणदोषों के उदाहरण सहित विस्तृत विचारः
(1) बिलावल थाट (सभी स्वर शुद्ध): बिलावल थाट के अंतर्गत रागों में सभी स्वर शुद्ध होते है। शंकरा, हंसध्वनि जैसे राग शुद्ध स्वर होने से बिलावल थाट में आते हैं। और बिहांगड़ा राग में दो निषाद (शुद्ध 'नी', कोमल 'नी') होते हुए भी वह बिलावल थाट में आता है।
(2) कल्याण थाट ('म' तीव्र, शेष स्वर शुद्ध): मारुबिहाग राग का थाट कल्याण है। इस राग में दोनों मध्यम का प्रयोग होता है और बाकी स्वर शुद्ध होते है। स्वरसाम्य के तत्व अनुसार बिहाग राग में भी दो मध्यम का प्रयोग होता है और बाकी स्वर शुद्ध होते हैं। किन्तु वह बिलावल थाट में आता है। कल्याण राग का जनक राग स्वयं कल्याण (यमन) है जिसमे केवल तीव्र म का ही प्रयोग होता है। किन्तु ‘हमीर', 'केदार', 'गौड़ सारंग', 'कामोद' इन रागों में दो मध्यमों का (शुद्ध, तीव्र 'म') का प्रयोग होते हुए वे कल्याण थाट में ही आते हैं।