कुदऊ अथवा कोदऊ सिंह परम्परा
कोदऊ अथवा कुदऊ सिंह पखावज के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कलाकार हुए हैं। ये अपने जीवन काल में ही अनेक जनश्रुतियों के केंद्र बन गये थे । इनका समय १९ वीं शताब्दी था। ये झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के दरबार में भी थे। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में जब इन्होंने लखनऊ घराने के बिंदादीन महाराज के नृत्य की संगति की थी तब बिंदादीनजी की उम्र नौ-दस वर्ष की थी और कोदऊ सिंह एक प्रसिद्ध पखावज वादक माने जाने लगे थे। इनके जन्म और मृत्यु काल के विषयमें संगीत के इतिहासकार एक मत नहीं है। फिर भी, इनका जन्म १८१२ में उत्तर प्रदेश के बांदा नामक शहर में हुआ था और निधन १९०७ में। ‘मध्य प्रदेश के संगीतज्ञ' पुस्तक के अनुसार इनका जन्मकाल संवत १८७२ और मृत्युकाल संवत १९६९ है । भारतीय संगीत कोष के अनुसार इनका पूरा नाम कोदर सिंह तिवारी था। सिर्फ नौ वर्ष की उम्र में अपने माता पिता को खो चुके अनाथ बालक कुदऊ सिंह को पुत्रवत स्नेह ओर पखावज की उच्च शिक्षा मथुरा के प्रसिद्ध पखावजी गुरु भवानी दीनजी से मिली थी। जिन्हें कहीं-कहीं भवानी सिंह और कहीं-कहीं भवानी दास भी लिखा गया है।
सन १८४७ में नवाब वाजिद अली शाह ने इनके असाधारण वादन से प्रभावित होकर इन्हें सदा कुंवर (कुंवर दास) की उपाधि प्रदान की थी। उस समय के अत्यन्त प्रसिद्ध पखावजी बाबू जोधसिंह को एक प्रतियोगिता में परास्त कर इन्होंने एक हजार रुपये का पुरस्कार प्राप्त किया था। रीवां के राजा ने उन्हें एक परन के लिए सवा लाख रुपये का ईनाम दिया था। सवा लाखी परन के नाम से यह बंदिश अयोध्या की पोथियों में लिखा हुआ है, किन्तु लिपिबद्ध न होने के कारण इसकी गति से लोग अनभिज्ञ है। कुदऊ सिंह को कई राजाओं का आश्रय और संरक्षण प्राप्त था, जिसमें रीवां, रामपुर, झांसी, बांदा, कवर्धा आदि प्रमुख हैं। रीवां के दरबारी पखावजी मोहम्मद शाह भी इनसे पराजित हुए थे। दतिया (मध्य प्रदेश) के राजा भवानी सिंह ने ही इन्हें सिंह की उपाधि से सम्मानित किया था । दतिया के पहले १८५३ में वे झांसी दरबार में राजा गंगाधर राव के आश्रय में थे। वहां उन्हें पर्याप्त मान-सम्मान मिला था। किंतु गंगाधर राव के निधन के बाद अंग्रेजों के साथ लड़ती हुई रानी लक्ष्मीबाई जब वीरगति को प्राप्त हुई और झांसी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया तब कई दूसरे लोगों के साथ-साथ कोदऊ सिंह को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। धीरे-धीरे यह खबर जब दतिया पहुंची तो कोदऊ सिंह के पखावज वादन से प्रभावित दतिया नरेश ने अपने संपर्कों की मदद से कोदऊ सिंह को न केवल कैद से मुक्त कराया, अपितु उन्हें 'सिंह' की उपाधि से विभूषित करते हुए पूरे सम्मान के साथ राजकीय कलाकार के रुप में अपने दरबार की शोभा भी बनाया।कोदऊ सिंह को शिक्षा के रूप में जो कुछ भी मिला, उसमें अपनी सर्जनात्मकता का परिचय देते हुए कोदऊ सिंह ने काफी कुछ जोड़कर न केवल पखावज वादन की कला को समृद्ध किया, बल्कि स्वयं को भी मृदंग सम्राट के रूप में स्थापित किया। वे महाकाली के परम भक्त और अद्वितीय पखावज वादक थे। यही कारण है कि उनके विषय में अनेक अविश्वसनीय जनश्रुतियां प्रचार में हैं। कहते हैं कि काली परन बजाते हुए वे पखावज को हवा में उछाल देते थे, और हवा में ही उस पर स्वतः थाप बजता था और ठीक सम पर पखावज उनकी गोद में आ जाता था। एक क्रोधित और मदमस्तहाथी को गज परन बजाकर इन्होंने न केवल शांत किया था बल्कि अपना भक्त भी बना लिया था। दतिया के राजा के उस हाथी का नाम गणेशगज था। उस समय के अनेक लोगों का दावा था कि वे इन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी हैं। कुछ पुस्तकों के अनुसार कोदऊ सिंह कान्यकुन्ज ब्राह्मण थे और उनका उपनाम तिवारी था, लेकिन उनके वंशज रामजी लाल अपना उपनाम शर्मा बताते हुए कोदऊ सिंह के पिता का नाम सगुण सिंह और पितामह का नाम सुखलाल सिंह बताते है। कोदऊ सिंह के छोटे भाई राम सिंह थें लेकिन, इस प्रश्न का उत्तर किसी पास नही है कि सिंह की उपाधि अगर कोदऊ सिंह को मिली तो उनके पिता और पितामह, के नाम के साथ सिंह कैसे जुड़ गया ?