सुगम संगीत का अर्थ एवं परिभाषा

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सुगम-संगीत

सुगम संगीत का अर्थ एवं परिभाषा

 भारतीय संस्कृति में संगीत का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण और प्राचीन रहा है। संगीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि आत्मिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और सामाजिक एकता का प्रभावी माध्यम रहा है। भारतीय संगीत परंपरा मुख्यतः तीन धाराओं में विभाजित मानी जाती है — शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत। इन तीनों में सुगम संगीत वह कड़ी है जो शास्त्रीय अनुशासन और लोकसुलभ सरलता के बीच संतुलन स्थापित करती है। सुगम संगीत की पृष्ठभूमि को समझना भारतीय संगीत के विकास को समझने के समान है।

सुगम संगीत का अर्थ एवं परिभाषा

‘सुगम’ शब्द का अर्थ है—जो सरलता से समझ में आए, जिसे सहज रूप से ग्रहण किया जा सके। अतः सुगम संगीत वह संगीत है जो राग, ताल और लय जैसे शास्त्रीय तत्वों पर आधारित होते हुए भी आम श्रोता के लिए सरल, भावप्रधान और ग्राह्य होता है। इसमें शास्त्रीय संगीत की तरह कठोर नियमों का पालन अनिवार्य नहीं होता, बल्कि भावाभिव्यक्ति, शब्दों की स्पष्टता और संप्रेषणीयता को अधिक महत्व दिया जाता है।

प्राचीन काल में सुगम संगीत की जड़ें

सुगम संगीत की पृष्ठभूमि अत्यंत प्राचीन है। वैदिक काल से ही संगीत का प्रयोग यज्ञ, स्तुति और उपासना में होता रहा है। सामवेद को संगीत का मूल ग्रंथ माना जाता है। सामगान में रागात्मकता तो थी, पर उसका उद्देश्य जनसामान्य तक आध्यात्मिक भाव पहुँचाना था, जो सुगम संगीत की भावना से मेल खाता है।

भक्ति काल में संत कवियों द्वारा रचित भजन, पद, अभंग, कीर्तन और भक्ति गीतों ने सुगम संगीत की नींव को और मजबूत किया। संत कबीर, मीरा, तुलसीदास, नामदेव, ज्ञानेश्वर, तुकाराम जैसे संतों की रचनाएँ शास्त्रीयता से प्रभावित होते हुए भी जनसामान्य के लिए सरल थीं।

मध्यकालीन संगीत परंपरा और सुगम संगीत

मध्यकाल में ध्रुपद, धमार जैसे गंभीर शास्त्रीय रूपों के साथ-साथ ठुमरी, दादरा, कजरी, होरी जैसे उपशास्त्रीय और सुगम रूप विकसित हुए। इन शैलियों में भाव, श्रृंगार और शब्दप्रधानता प्रमुख रही। दरबारी संगीत के साथ-साथ जनसंगीत का भी विकास हुआ, जिससे सुगम संगीत को सामाजिक स्वीकृति मिली।

इस काल में संगीत केवल राजदरबार तक सीमित न रहकर मंदिरों, मेलों और उत्सवों में भी गाया जाने लगा। इससे संगीत अधिक लोकसुलभ हुआ और सुगम संगीत की परंपरा सशक्त बनी।

शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत का संबंध

सुगम संगीत का आधार शास्त्रीय संगीत ही है। रागों का चयन, तालों का प्रयोग और स्वरशुद्धता शास्त्रीय परंपरा से ही आती है। किंतु सुगम संगीत में राग का विस्तार सीमित होता है। आलाप, तान और जटिल प्रयोगों की अपेक्षा भाव और गीत की स्पष्टता पर बल दिया जाता है।

शास्त्रीय संगीत में श्रोता को संगीत समझने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, जबकि सुगम संगीत बिना किसी विशेष ज्ञान के भी हृदयस्पर्शी होता है। यही विशेषता इसे व्यापक लोकप्रियता प्रदान करती है।

लोक संगीत का प्रभाव

भारतीय लोक संगीत ने सुगम संगीत को भावनात्मक गहराई और सामाजिक संदर्भ प्रदान किया है। प्रत्येक प्रांत का लोक संगीत—चाहे वह महाराष्ट्र का अभंग, राजस्थान का मांड, बंगाल का बाउल, उत्तर भारत का कजरी या दक्षिण भारत का भावगीतम—सुगम संगीत की आत्मा में समाहित है।

लोकगीतों में जीवन की सच्चाई, सामाजिक मूल्य, ऋतु परिवर्तन, कृषि, उत्सव, प्रेम और विरह का सरल चित्रण मिलता है। यही तत्व सुगम संगीत को आम जनजीवन से जोड़ते हैं।

आधुनिक युग में सुगम संगीत का विकास

बीसवीं शताब्दी में तकनीकी प्रगति ने सुगम संगीत को नई दिशा दी। रेडियो, ग्रामोफोन, टेलीविजन और बाद में सिनेमा ने सुगम संगीत को घर-घर पहुँचाया। भारतीय फिल्म संगीत वस्तुतः सुगम संगीत का सबसे लोकप्रिय रूप बन गया।

फिल्मी गीतों में शास्त्रीय रागों का सरल उपयोग, भावपूर्ण शब्द और मधुर धुनें सुगम संगीत का आदर्श उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त गैर-फिल्मी गीत, ग़ज़ल, भजन, देशभक्ति गीत और भावगीत भी सुगम संगीत की महत्वपूर्ण विधाएँ हैं।

प्रमुख कलाकारों का योगदान

सुगम संगीत को समृद्ध करने में अनेक महान कलाकारों का योगदान रहा है। लता मंगेशकर, आशा भोसले, मन्ना डे, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार जैसे गायकों ने सुगम संगीत को जनमानस तक पहुँचाया। पं. भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, पं. जसराज जैसे शास्त्रीय कलाकारों ने भजन और अभंग गायन के माध्यम से सुगम संगीत को गरिमा प्रदान की।

गीतकारों और संगीतकारों की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही। सरल, भावपूर्ण शब्दों और मधुर धुनों ने सुगम संगीत को स्थायित्व दिया।

सुगम संगीत का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

सुगम संगीत समाज को जोड़ने का कार्य करता है। यह भाषा, वर्ग, आयु और शिक्षा की सीमाओं से परे सभी के लिए समान रूप से ग्राह्य होता है। सामाजिक संदेश, नैतिक मूल्य, आध्यात्मिक चेतना और राष्ट्रप्रेम को सुगम संगीत सरल रूप में प्रस्तुत करता है।

विद्यालयों, महाविद्यालयों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और धार्मिक आयोजनों में सुगम संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और संवर्धन का सशक्त माध्यम है।

वर्तमान समय में सुगम संगीत की प्रासंगिकता

आज के डिजिटल युग में भी सुगम संगीत की लोकप्रियता बनी हुई है। ऑनलाइन मंचों, यूट्यूब, संगीत ऐप्स और लाइव कार्यक्रमों के माध्यम से सुगम संगीत नई पीढ़ी तक पहुँच रहा है। आधुनिक वाद्ययंत्रों और नई तकनीकों के बावजूद इसकी आत्मा वही सरलता और भावप्रधानता बनी हुई है।

निष्कर्ष

सुगम संगीत भारतीय संगीत परंपरा की वह सजीव धारा है जो शास्त्रीय गहराई और लोकसुलभ सरलता का अद्भुत संगम प्रस्तुत करती है। इसकी पृष्ठभूमि में वैदिक परंपरा, भक्ति आंदोलन, लोक संस्कृति और आधुनिक अभिव्यक्ति का समन्वय दिखाई देता है। सुगम संगीत न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक चेतना और भावनात्मक अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम भी है। यही कारण है कि सुगम संगीत सदियों से भारतीय जनमानस के हृदय में अपनी स्थायी जगह बनाए हुए है।


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