दिलरुबा: भारत का भावपूर्ण वाद्य यंत्र
दिलरुबा एक आकर्षक भारतीय तंत्री वाद्य यंत्र है, जो उत्तर भारतीय शास्त्रीय और भक्ति संगीत में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी समृद्ध, गुंजायमान ध्वनि और गहरे अभिव्यक्तिपूर्ण स्वर इसे एकल और समूह संगीत प्रस्तुतियों में उपयोगी बनाते हैं। आइए इस अनूठे वाद्य यंत्र के इतिहास, संरचना, वादन तकनीक और महत्व को समझते हैं।
इतिहास और उत्पत्ति
दिलरुबा को ताऊस से विकसित माना जाता है, जो एक बड़ा तंत्री वाद्य यंत्र है और मोर के आकार का होता है। ताऊस को पारंपरिक रूप से सिख संगीतकार बजाते थे, लेकिन इसके बड़े आकार के कारण इसे ले जाना मुश्किल होता था। इसे हल्का और अधिक पोर्टेबल बनाने के लिए दसवें सिख गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी ने दिलरुबा का विकास कराया।
यह वाद्य यंत्र सिख भक्ति संगीत (गुरबानी संगीत) और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रमुखता प्राप्त करता गया और समय के साथ पारंपरिक और अर्ध-शास्त्रीय संगीत शैलियों का अभिन्न अंग बन गया।
संरचना और डिज़ाइन
दिलरुबा की विशिष्ट संरचना इसकी अनूठी ध्वनि गुणवत्ता में योगदान देती है:
शरीर: यह एक लंबी, खोखली लकड़ी की गर्दन और सपाट लकड़ी के ध्वनि पट्ट से बना होता है। इसे नक्काशी और अलंकरणों से सजाया जाता है।
तार: इसमें आमतौर पर चार मुख्य तार और कई प्रतिध्वनि तार होते हैं, जो ध्वनि को गहराई प्रदान करते हैं।
झल्लर: इसमें धातु की झल्लर होती है, जिन्हें समायोजित किया जा सकता है और वे सूक्ष्म स्वरों को उत्पन्न करने में मदद करती हैं।
गज (धनुष): दिलरुबा को धनुष से बजाया जाता है, जो घोड़े के बालों से बना होता है और इसे वायलिन या सारंगी की तरह चलाया जाता है।
वादन तकनीक
दिलरुबा बजाने के लिए धनुष और उंगलियों के समन्वय की आवश्यकता होती है:
बाएँ हाथ से तारों को दबाकर स्वर उत्पन्न किए जाते हैं।
दाएँ हाथ से धनुष को तारों पर घुमाकर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
प्रतिध्वनि तार कंपन करते हैं और संगीत को अधिक गहराई प्रदान करते हैं।
मींड (ग्लाइड), गमक (लयबद्ध स्वर कांप), और मुरकी (सूक्ष्म अलंकरण) जैसी तकनीकों का प्रयोग किया जाता है।
संगीत में उपयोग
दिलरुबा विभिन्न संगीत शैलियों में उपयोग किया जाता है:
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत: इसे एकल वाद्य और संगत वाद्य दोनों रूपों में बजाया जाता है।
गुरबानी कीर्तन: यह सिख भक्ति संगीत में गुरबानी गायन के लिए प्रमुख वाद्य यंत्र है।
लोक और सुगम संगीत: कुछ लोक संगीत परंपराओं और अर्ध-शास्त्रीय प्रस्तुतियों में भी इसका उपयोग किया जाता है।
अन्य समान वाद्य यंत्रों से तुलना
ताऊस: यह दिलरुबा का पूर्वज वाद्य यंत्र है, जिसका आकार बड़ा होता है और मोर के आकार का डिज़ाइन होता है।
एसराज: यह दिलरुबा के समान है, लेकिन इसकी ध्वनि अधिक कोमल होती है और इसे मुख्यतः रवींद्र संगीत में उपयोग किया जाता है।
सारंगी: यह बिना झल्लर वाला वाद्य यंत्र है, जिसमें तारों को नाखूनों से दबाकर बजाया जाता है।
निष्कर्ष
दिलरुबा एक अद्भुत वाद्य यंत्र है, जो शास्त्रीय, भक्ति और लोक संगीत को एक सूत्र में पिरोता है। इसकी अभिव्यक्ति की गहराई और समृद्ध ध्वनि गुणवत्ता श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती है। यद्यपि यह अन्य लोकप्रिय वाद्य यंत्रों की तुलना में कम प्रचलित है, लेकिन संगीतकारों और शोधकर्ताओं के प्रयासों से इसका महत्व बना हुआ है।
चाहे वह शांत कीर्तन हो या कोई भावपूर्ण राग प्रस्तुति, दिलरुबा भारतीय संगीत धरोहर का एक अनमोल रत्न बना हुआ है, जो भक्ति और कलात्मकता की भावना को अपनी मधुर ध्वनि के माध्यम से संजोए रखता है।