श्रोता के गुण
3) सहृदयता - यह तत्व किसी भी कला के दर्शक या श्रोता में होना जरूरी है। इसके अभाव में श्रोता रसास्वादन नहीं कर सकता। कला में भावना का प्राधान्य होने के कारण, भावुक हृदय की मांग रहती है। भाव- शून्य हृदय में, ऊपर से सुनाकर भाव पैदा नहीं किए जा सकते। कला हमारे हृदय को स्पर्श करती है, अतः सहृदयी जल्दी प्रभावित होता है। सौन्दयं बोध की स्थिति रागद्वेष रहित है और ऐसी स्थिति में सहृदयी ही पहुंचने की क्षमता रखता है। ऐसा व्यक्ति हो शब्दों में, आलोचना में नहीं खोता, वरन् आनन्द व भाव में खोता है और वही रसपान करता है। बुद्धि के द्वारा श्रोता कला के शरीर को, बाह्य रूप को समझता है, तो सहृदयता अथवा रागात्मकता द्वारा वह उसकी आत्मा या उसके प्रभाव या उससे प्राप्त असीम प्रानंद तक पहुंचता है। सहानुभूति, प्रेम दया, करुणा, त्याग की भावना से जिसका हृदय नहीं भरा हो बह संवेदन- शील नहीं हो सकता ।
(4) नैतिक गुण
एक अच्छे श्रोता में कुछ नैतिक गुण भी होने चाहिए तभी वह स्वयं आनंद उठा सकता है और कलाकार का सहयोगी बन सकता है। ये गुण निम्न है-
(i) श्रोता को पक्षपात रहित होना चाहिए, यह नहीं कि अपना रिश्ते- दार या जान-पहचान वाले का कार्यक्रम हो तो अनुचित प्रशंसा की जाय तथा विरोधी या किसी अपने Compititor का कार्यकम हो तो उसे हतोत्साहित करें। कार्यक्रम निष्पक्ष होकर सुनना व सराहना चाहिए ।
(ii) ईर्ष्या से दूर रहे। कोई उभरता कलाकार भी यदि अच्छी प्रस्तुति करे तो उसकी खुले दिल से प्रशंसा की जाय न कि ईर्ष्यावश चुप साधले या उसे नीचा दिखाने का प्रयास करें ।
(iii) श्रोता में धैर्य होना बहुत जरूरी है। इसमें पूर्व तैयार कृति तो होती नहीं, जिसे पूर्ण रूप में देखा जा सके और तुरंत फैसला दिया जाय कि सुन्दर है या बुरी। बल्कि इसमें तो सौन्दर्य का ग्रावरण धीरे-धीरे उठता है। कलाकार कब किस सौन्दर्य-बिन्दु को प्रस्तुत करे यह निश्चित नहीं होता अतः पूरी रचना धैर्य से सुनना जरूरी है।
(iv) श्रोताओं में गुणग्राह्यता का गुण भी होना चाहिए। गायक-वादक जो भी कलाकारी दिखाए उसमें नवीनता, सौन्दर्य विन्दु घथवा किसी भी प्रकार की कलाकारी हो, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए, बाहे वह अपने से निम्न स्तर का ही गायक वादक क्यों न हो। अच्छाई को ग्रहण करने व उसकी प्रशंसा करने की भावना श्रोता में होनी चाहिए।