संगीत में सौंदर्योत्पत्ति
(6) उत्कण्ठा एवं सौन्दर्य- उपरोक्त वर्णित स्वर, ताल तथा लय सौन्दर्य के अतिरिक्त कुछ विचारक संगीत में सौन्दर्योत्पत्ति का एक अन्य आधार बिन्दु 'उत्कण्ठा' को बताते हैं। इन विचारकों के अनुसार श्रोताओं में उत्कण्ठा पैदा करना, उसको चरम सीमा तक पहुंचाना तथा उसका विसर्जन करना, इस प्रक्रिया द्वारा कलाकार सौन्दर्य पैदा करता है। इन तीन चरणों में संगीत का सम्पूर्ण सौन्दर्य छिपा रहता है। इसको 'Tension and resolution' के सिद्धान्त द्वारा समझा जा सकता है। राग के आलाप में उत्कण्ठा को जागृत किया जाता है, आलाप की बढ़त के साथ उसका विकास (चरम सीमा) होता है तथा मुखड़े के साथ सम पर आना उस उत्कण्ठा का विसर्जन है, यही गायन वादन का मूल सौन्दर्य है।
श्री रानाडे ने उत्कण्ठा के सम्बन्ध में निम्न बातें कही हैं-
(i) आलाप में कौनसा स्वर अथवा समुदाय लगेगा, यह उत्कण्ठा जागृत करना ही सौन्दर्य स्थल है।
(ii) सा, म तथा प राग की उत्कण्ठा के विसर्जन के सौन्दर्य स्थल हैं।
(iii) सा, म, प के निकटवर्ती स्वर उत्कण्ठा जागृत करने के सौन्दर्य स्थल हैं।
(iv) ताल में सम से पहले की मात्रा में मुखड़ा लेकर या तिहाई लेकर सम पर मिलना उत्कण्ठा विसर्जन का सौन्दर्य स्थल है।
उत्कण्ठा जागृत करना तथा कलाकार किस-किस प्रकार कर सकता है, इसके कुछ उदाहरण निम्न हैं-
(i) राग में तिरोभाव (दूसरे राग की छाया) द्वारा उत्कण्ठा पैदा की जाती है तथा आविर्भाव द्वारा उसका विसर्जन ।
(ii) सा, म, प तथा सां, इनके पूर्व स्वर उत्कण्ठा जागृति के स्थल हैं, जैसे बिहाग में ग म प नि, नि,नि इस प्रकार की प्रस्तुति पर श्रोता को ऐसा लगा कि अब कलाकार सा लगाने वाला है, लेकिन गायक लौट आता है। नि ध प अथवा नि से मन्द्र नि लगाता है। नि.... नि....सा, निसा गमप गम ग, रेसा अथवा नि के बाद तार षड़ज न लगाकर मध्य षड़ज लगा देता है निसा, निसागमग रेसा। इसी प्रकार वह अपनी कल्पना के अनुसार करता है।
(iii) इसी प्रकार पंचम या तार सा का दीर्घ करना (देर तक लगाना) उत्कण्ठा जागृत करता है कि अब श्वास समाप्त होते ही स्वर भी छोड़ दिया जाएगा पर कलाकार श्वास समाप्त होने से पहले ही छोटी-सी तान लेता है व फिर स्वर छोड़ता है, यह उत्कण्ठा विसर्जन का सौन्दर्य स्थल है।
(iv) मूल लय में बीच में विषम लय द्वारा उत्कण्ठा पैदा करना तथा पुनः मूल लय में आकर विसर्जन करना ।
(v) विभिन्न प्रकार की तिहाइयां- सम से काफी पहले आलाप समाप्त करने से श्रोताओं में उत्कण्ठा होती है, अरे अभी तो बहुत मात्राएँ हैं, आलाप खतम कर दिया ? लेकिन कलाकार तिहाइयां लेकर सम पर जब मिलता है, यह उत्कण्ठा विसर्जन सौन्दर्य पैदा करता है।
(vi) आरोहात्मक गायन वादन द्वारा उत्कण्ठा जागृत करना तथा अवरोहात्मक द्वारा विसर्जन ।
(vii) मुखड़े को विभिन्न परिवर्तन के साथ गाना अथवा स्थाई तथा अन्तरे की पहली पंक्ति को विभिन्न प्रकार गाना उत्कण्ठा पैदा करता है। यही गायकी व नायकी का क्रम है।
(viii) इसके अतिरिक्त सम से पहले सम दिखाना, सम के बाद सम दिखाना, फिर मूल सम में मिल जाना। मींड की समाप्ति उत्कण्ठा का विसर्जन स्थल है।
संगीत इतनी विशाल तथा समृद्ध कला है कि कलाकार की जितनी क्षमता, कुशलता तथा गले की तैयारी होगी, वह राग में उतना ही सौन्दर्य भर सकता है।
(7) गतिशीलता एवं सौन्दर्य- कुछ विचारक, संगीतज्ञ संगीत में सौन्दर्य, उसकी गतिशीलता में मानते हैं। सुगन लैंगर के अनुसार संगीत काल का प्रतिविम्व है। उसको गति व कालिक सौन्दर्य में हो संगीत का सौन्दर्य-आदर्श छिपा है। कोई भी राग पूर्ण आकार अथवा रूप (सम्पूर्ण कृति एक साथ) में सुनाई नहीं देता वरन् धीरे-धीरे सौन्दर्य का अनावरण होता है। पिछला आंशिक सौन्दर्य आगामी सौन्दर्य की पूर्णता के साथ एकाकार होता जाता है। आलाप मुखड़े में व मुखड़ा सम में लीन हो जाता है। भूत, वर्तमान तथा भविष्य की एक शृंखला बन जाती है। प्रत्यक्ष सौन्दर्य क्षण भर में लुप्त हो जाता है और अप्रत्यक्ष सौन्दर्य साकार हो उठता है। इस गति में ही संगीत का सौन्दर्य है। इसी प्रकार का मत सुधा श्रीवास्तव ने दिया है। उनके अनुसार राग प्रस्तुतिकरण को पूर्ण स्थूल सौन्दर्य का रूप नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संगीत में कलाकृति एक सम्पूर्ण तैयार वस्तु के रूप में प्रकट नहीं होती है बरन् एक एक करके सौन्दर्य के स्थूल रूप (रागों का स्थूल रूप सौन्दर्य) क्रममें उभरते हैं और प्रत्येक स्थूल रूप का गायक अथवा वादक के आन्तरिक सूक्ष्म रूप (उसके मन में स्थित सूक्ष्म सौन्दर्य) से सम्बन्ध बना रहता है। इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। राग में सौन्दर्य के आधार, नादात्मक, कालिक तथा लयात्मक हैं। नादात्मक में स्वर सौन्दर्य; कण, मींड, गमक, स्वर को लगाना छोड़ना ग्रादि बातें आती हैं। ये सभी सौन्दर्य के सूक्ष्म रूप हैं। इसे गणितीय अथवा वैज्ञानिक आधार द्वारा नहीं बताया जा सकता। तोड़ी का गंधार मुलतानी के गंधार से किस प्रकार भिन्न है, यह भिन्नता हो इन रागों का सौन्दर्य है।
कालिक अर्थात् गतिशीलता। सौन्दर्य का धीरे-धीरे अनावरण, कृति का बनते जाना और प्रस्तुति होती जाना। सौन्दर्य का यह रूप अर्थात् गतिशीलता अन्य कलाओं में उपलब्ध नहीं है। इसलिए संगीत को Moving art कहा गया है। काल तथा स्वर की इसी गतिशीलता में राग के सौन्दर्य का आदर्श छिपा रहता है।
उपरोक्त सभी मतों के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि संगीत में राग के स्वरूप व नियमों को ध्यान में रखते हुए गायक वादक अपनी कुशलता अभ्यास तथा तैयारी द्वारा स्वर, ताल, राग के दस लक्षण आदि द्वारा अनेक प्रकार से सौन्दर्य पैदा कर सकता है। कभी-कभी कलाकार काकुभेद द्वारा गीत रचनाओं में सौन्दर्य पैदा करता है। ठुमरी, दादरा, कजरी आदि इसी प्रकार के गीत हैं। जैसे "कौन गली गये श्याम, बता दे सखीरी" इस ठुमरी में 'बतादे सखीरी' इन शब्दों को विभिन्न प्रकार से गाना (कभी विनती करने के अन्दाज में, कभी खुशामद करने के अन्दाज में तो कभी गुस्से में, कभी सखी से अधिकारपूर्वक पूछने) प्रस्तुति में सौन्दर्य वृद्धि करते हैं। संगीत के सृजन की प्रक्रिया में स्वर, लय, ताल, सौन्दर्य को निरन्तर जन्म देते रहते हैं। जहाँ सौन्दय के धरातल का स्पर्श होता है, कलाकार उन मार्मिक स्थलों की पुनरावृत्ति की चेष्टा करता है। विवादी स्वर का प्रयोग, थाट नियमों का उल्लंघन, बारहों स्वरों का प्रयोग आदि वह अपनी योग्यतानुसार करता है। कहां व कब कौनसी हरकत कृति में सौन्दर्य भर दे, यह सुनकर ही महसूस किया जा सकता है। प्रत्येक कलाकार (गायक वादक) उपरोक्त सभी माध्यमों का प्रयोग तथा अपनी योग्यता, कुशलता व कल्पना शक्ति के माध्यम से संगीत में सौन्दर्य पैदा करता है।