तबला घराना
दिल्ली और अजराडा
हमारे देश में संगीत राजाओं के दरबारों में व्याप्त था, परंतु जब राजाओं का युग समाप्त हो गया एवं अंग्रेज़ों ने धीरे-धीरे हमारे देश पर राज करना शुरू कर दिया, तो संगीतज्ञों एवं संगीतकारों ने अलग-अलग रहकर अपने परिवार और शिष्यों को प्रशिक्षण दिया। बहुत कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपनी कला और शैली को जीवित रखा।
जब किसी असाधारण प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा किसी विशिष्ट शैली (गायन, वादन अथवा नृत्य) का निर्माण होता है, जिसका पालन उसी रूप में उसकी वंश परंपरा तथा शिष्य परंपरा में कई पीढ़ियों तक होता है, तब किसी घराने का निर्माण होता है। उत्तर भारतीय संगीत में घरानों की शुरुआत मुगल काल के अंतिम दौर से ही मानी जाती है। संगीत को समृद्ध बनाने में घरानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एक ओर घरानों ने संगीत की किसी विधा की शैलीगत विशेषताओं को संरक्षित किया, उनका प्रचार-प्रसार किया तो दूसरी ओर संगीत शैलियों की विविधता को विस्तार दिया और उसे नीरस होने से भी बचाया।
तबला वाद्य का इतिहास लगभग तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पुराना है। इन वर्षों में तबले के छह घराने विकसित हुए, इन घरानों की अपनी-अपनी शैलीगत विशेषताएँ हैं, जिनके आधार पर असंख्य बंदिशों का निर्माण हुआ है तथा जिन्होंने तबले के साहित्य को विविधता से समृद्ध किया है। विभिन्न घरानों की वादन शैलियों को 'बाज' कहा जाता है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तबले के बाज को मूलतः दो भागों में बाँटा गया है पश्चिम बाज और पूरब बाज। पश्चिम बाज के अंतर्गत दिल्ली और अजराड़ा घराने की वादन शैली आती है, जबकि पूरब बाज के अंतर्गत लखनऊ, फ़र्रुखाबाद और बनारस घराने की वादन शैली आती है। इसके अतिरिक्त पंजाब घराने का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ माना जाता है। तबले के घरानों का संक्षिप्त परिचय निम्न है।
दिल्ली घराना
यह तबला वादन का प्रथम घराना माना जाता है। यह घराना मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीले के शासन काल में विकसित हुआ। इस घराने की स्थापना उस्ताद सिद्धार खाँ डाढ़ी ने की। उन्होंने अपने पुत्रों एवं शिष्यों को शिक्षा देकर इस घराने को आगे बढ़ाया। उस्ताद सिद्धार खाँ ने पखावज पर बजने वाले खुले और ज़ोरदार बोलों को तबले पर बजाए जाने के अनुकूल बनाकर एक नई शैलीविकसित की, जो दिल्ली बाज के नाम से जानी गई। इसे 'दो अँगुलियों का बाज' या 'किनार का बाज' भी कहते हैं। दिल्ली बाज में तिट, घिट, तिरकिट, धाति, धगेनधा, धिन-गिन, तिन-किन आदि बोलों के व्यवहार की प्रधानता रहती है। पेशकार, चतस्त्र जाति के छोटे कायदे व रेला के वादन के लिए यह बाज जाना जाता है। इस घराने में नत्थू खाँ, महबूब खाँ मिरजकर, गामी खाँ, इनाम अली खाँ, लतीफ़ अहमद खाँ, शफात अहमद खाँ आदि प्रसिद्ध तबला वादक हुए, जिन्होंने इस घराने की वादन शैली को नए आयाम दिए।
अजराड़ा घराना
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले में अजराड़ा नामक गाँव है। इसके मूल निवासी कल्लू खाँ और मीरू खाँ ने दिल्ली जाकर उस्ताद सिताब खाँ से तबला वादन की शिक्षा ग्रहण की और वापस आकर इसकी वादन शैली में परिवर्तन करके अजराड़ा घराने की स्थापना की। दिल्ली से संबद्ध होने के कारण इसकी सारी विशेषताएँ अजराड़ा बाज में आना स्वाभाविक ही है। फिर भी इसकी कुछ अपनी निजी विशेषताएँ हैं जिस कारण इस घराने को मान्यता प्राप्त हुई। इसमें बायाँ या डग्गा का व्यवहार बहुत कलात्मक रूप से किया गया एवं इस कारण तबले की नादात्मकता में सकारात्मक एवं प्रगतिशील परिवर्तन आया। बायाँ के बोलों को प्रधानता देते हुए आड़ी लय के कायदों का प्रसार हुआ। डग्गे के बोलों की प्रधानता, तबले और डग्गे के वर्षों के गूंज से निर्मित बोल घेतग, घेनग, घेघेनक, दिंग-दिनागिन, धातग-घेतग आदि का प्रचलन, त्रिस्त जाति के कायदे का अधिक प्रयोग आदि को इस घराने की विशेषताओं के अंतर्गत माना जाता है। इस घराने के प्रमुख कलाकारों में, हबीबुद्दीन खाँ, सुधीर कुमार सक्सेना, मनमोहन सिंह, सुधीर पाण्डेय, हशमत खाँ, रमज़ान खाँ, अकरम खाँ आदि सम्मिलित हैं।