तबला
दूसरी ओर संगति वाद्य के रुप में तब्ल और तबल शब्द का उल्लेख 14 वीं शताब्दी से ही मिलना आरम्भ होता है। जैन आचार्य सुधा कलश वाचनाचार्य ने 1350में रचित अपने ग्रन्थ 'संगीतोपनिषत्सारोद्धार' में ढोल, तब्ल, डफ, टामकी और डोंडी नामक वाद्यों की चर्चा की हैं। इसके बाद असम के माधवदेव कादली ने अपनी असमिया रामायण में ढोल, डौंडी आदि के साथ तबल का उल्लेख इस प्रकार किया है।
'वीर ढाक डोल वाजिया तबल डगर डौंडी सबद सुनिया ।
15 वीं शताब्दी में सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेव जी ने अपने शब्द में तबल का उल्लेख किया है तबल बाज विचार सबद सुणाइयाँ उल्लेखनीय है कि भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियाँ और उन्हें विभिन्न स्वरों में स्वरबद्ध करने की विशेषता मात्र उर्ध्वक और आलिंग्य में थी, जो सव्यक् और वामक नाम से भी जाने जाते थे। इसीलिए इसकी उपयोगिता शेष अवनद्ध वाद्यों से कही अधिक थी। कालान्तर में कलाकारों को इसमें जो सबसे बड़ी कठिनाई महसूस हुई वह यह थी कि मिट्टी द्वारा निर्मित और तीन बडे भागों में होने के कारण आवागमन की दृष्टि से यह अनुपयुक्त था । अतः संगीत जगत् में कुछ समय की अनुपस्थिति के पश्चात् कलाकारों इसका अभाव अनुभव हुआ और त्रिपुष्पकर जो एक वाद्य था- उसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त कर उर्ध्वक और आलिंग्य-अर्थात सव्यक् (दायाँ) और वामक (बायाँ) को एक वाद्य का रुप दे दिया गया और आंकिक को दूसरे का। आंकिक उस काल के प्रचलित और प्रतिष्ठित ध्रुवपद संगीत के साथ जुड़कर मृदंग और फिर पखावज के नाम से प्रतिष्ठा तथा लोकप्रियता के मार्ग पर अग्रसर हुआ तो सव्यक् और वामक दूसरे वर्ग के लोक आदिसंगीत के साथ जुडकर उपेक्षा और विस्मृति के पात्र बने ।
त्रिपुष्कर अपने निर्माण काल से ही जमीन पर रखकर और वादक द्वारा बैठकर बजाया जाता रहा है। कालान्तर में जब इसके आकार को छोटा किया गया और आंकिक को अलग कर सव्यक् और वामक को निम्नवर्गीय संगीत के साथ जोड़ा गया-तब इसे खड़े होकर और कमर में बाँधकर बजाने की प्रथा चल पड़ी-जो बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक थी । यद्यपि इस समय तक उर्ध्वक और आलिंग्य अर्थात सव्यक और वामक तबल और तबला नाम धारण कर चुके थे । तबले का जुडाव बीच में लोक संगीत से हो गया था। दादरा, कहरवा, पश्तो, खेमटा, दीपचंदी और धुमालि आदि जैसे अनेक तालों का जो मूलतः लोक संगीत के हैं-तबला पर वादन भी यही साबित करता है। तबला जो उर्ध्वक और आलिंग्य नाम से कभी मार्ग संगीत की शोभा था कालान्तर में तबला आदि नाम से देशी संगीत के साथ जुडा और फिर पुनः शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो गया लेकिन लोक संगीत से इसका जुडाव आज भी है ।वस्तुतः 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जब सदारंग रचित खयाल गायन एवं खुसरो खाँ द्वारा निर्मित तन्त्र वाद्य तीन तारों का सेहतार (सितार) दिनों-दिन अधिकाधिक लोकप्रिय होने लगा और पखावज की संगति उसके लिए अनुपयुक्त प्रतीत होने लगी, तब उस्ताद सुधार खाँ ने उर्ध्वक और आलिंग्य को जो तब तक तब्लः नाम धारण कर चुका था कि वादन शैली में सुधार और विकास करके, उसमें चाँटी (किनार) से बजने बाले नाना प्रकार के बोलों की रचना करके अपने शिष्यों को सिखाया। सर्वथा नवीन वादन शैली का आविष्कार करने के कारण उन्हें अतिरंजित प्रचार मिला, और कुछ समय बाद लोगों ने उन्हें तबले का ही आविष्कारक मान लिया। डॉ. वी.सी. देव ने अपनी पुस्तक 'भारतीय वाद्य' में लिखा है कि भारत में मुसलमानों के आगमन के 12-13 सौ वर्ष पूर्व तबले का प्राचीन रुप यहाँ था। 16 वीं 17 वीं सदी के पूर्व अनेक गुफाओं एवं मन्दिरों के प्रस्तर शिल्पों में तबले सदृश अनेक वाद्यों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। प्रो.जी.एच. कहीं तारलेकर एवं नलिनी तारलेकर ने अपनी पुस्तक म्यूजिकल इन्स्ट्रुमेंटस ऑफ इण्डियन कल्चर में ईसा की छठी सदी के बादामी के एक शिल्प में तबला डग्गा जैसे एक वाद्य को एक व्यक्ति द्वारा बजाए जाने का वर्णन किया है। पुणे के पास स्थित भाजा गुफा में ईसा से 200 वर्ष पूर्व के एक प्रस्तर शिल्प में तबला सदृश वाद्य बजाए जाने का चित्रांकन है।
तबला पखावज आविष्कार की बात करते समय हमें यह जान लेना चाहिए, कि आज का तबला या पखावज किसी व्यक्ति विशेष द्वारा किसी कालखण्ड में नहीं निर्मित नाम से हुआ है। जिस कालखण्ड में तबला के दिल्ली में अविष्कृत होने के दावे हो रहे हैं, उस वर्ग के काल खण्ड में तबला देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रुपों में बज रहा था। ये सभीधाराएँ एक - दूसरे से पृथक थीं। सुधार खाँ (जो दिल्ली घराने के जनक थे) के पौत्र मोदु खाँ की शादी पंजाब घराने के तबला वादक परिवार में हुई थी, और मोदु खाँ को अपनी ससुराल से तबले के अनेक कायदे और पंजाबी गते उपहार स्वरुप मिली थी । इस प्रकार यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक तबला प्राचीन अवनद्ध वाद्य पुष्कर का ही नवीनतम और विकसित रुप हैं । दरअसल, संगीत के कई इतिहासकार जब तबला आविष्कारक के रुप में अमीर खुसरो का नाम लेते हैं, तो वे पुरी तरह गलत नहीं होते हैं। लेकिन, वे दोनों अमीर खुसरो में फर्क नहीं कर पाते हैं। वस्तुतः दिल्ली बाज के जनक 18 वीं शताब्दी के पखावजी अमीर खुसरो खाँ थे, 13 वीं शताब्दी के सूफी कवि हजरत अमीर खुसरो नहीं । अमीर खुसरो पंजाब के प्रसिद्ध पखावजी रहमान खाँ ढाढी के पुत्र थे, अतः उन्हें पखावज का अच्छा ज्ञान था। तब तक पखावज से प्रेरित और प्रभावित तबले का प्रचलन पंजाब में हो चुका था । इस शैली के तबले का भी ज्ञान उन्हें था। बाद में अमीर खुसरो खाँ ने अपने रिश्ते के भाई सदारंग से खयाल गायन भी सीखा, और इसी की समुचित तथा अनुकूल संगति हेतु तबला वादन की शैली में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी किए, जिसे तत्कालीन संगीत समाज ने सुधारात्मक प्रयोग माना और उन्हें सुधार खाँ की उपाधि दी। संगीत का इतिहास गवाह है कि अनेक कलाकार अपने वास्तविक नाम कि अपेक्षा संगीत समाज द्वारा प्रदत्त उपाधि युक्त नामों से अधिक जाने गए, क्योंकि संगीत के क्षेत्र में ऐसी उपाधियाँ नयी और अप्रत्याशित नहीं हैं। इसी तरह उ. अमीर खुसरो खाँ भी अपने सुधारात्मक प्रयोग के कारण उ. सुधार खाँ के नाम से मशहूर हुए ।