तबला संगति
जब किसी संगीतकार के प्रस्तुति के दौरान कुछ दूसरे संगीतकार उसे रचनात्मक, सांगीतिक सहयोग देते हैं तो उसे संगीत की भाषा में संगत या संगति करना कहते हैं। संगीत की हर प्रस्तुति में संगति और संगतिकार की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। अच्छा संगतिकार अगर किसी कार्यक्रम को और अधिक अच्छा बना सकता है तो बुरा संगतिकार किसी अच्छे भले कार्यक्रम को चौपट भी कर सकता है। संगति करना भी एक अलग तरह की कला है, जिसमें अच्छे गाने बजाने के साथ-साथ विवेकशीलता, प्रत्युत्पन्नमतीत्व (presence of mind) आपसी सामंजस्य, सहानुभूति, समझदारी, सूझ-बूझ की भी जरूरत पड़ती हैं। यही कारण है कि, कई अच्छे ताबलिक अच्छा संगतिकार नहीं बन पाते और यही कारण हैं कि अनेक संगीतकार अपना विशेष संगतिकार रखते हैं। तबला संगति के संदर्भ में बात करें तो विद्वानों ने मुख्यतः तीन प्रकार की संगतियाँ मानी हैं -
(१) अनुसंगति : जब कोई संगीतकार अपनी रचना प्रस्तुत करता हैं और उस समय तबला वादक सीधा ठेका बजाता है। लेकिन उस रचना के समापन के बाद जब ताबलिक उस संगीतकार का अनुसरण करता हुआ उसकी रचना से मिलती-जुलती रचना प्रस्तुत करता हैं, तो उसे अनुसंगति कहते हैं। इसमें कभी-कभी ऐसा भी होता है कि, एक रचना मुख्य कलाकार प्रस्तुत करें और उसके बाद संगतिकार उससे मिलती- जुलती रचना प्रस्तुत करें। इसीलिए उसे सवाल-जवाब की संगति भी कहते हैं। तंत्र और सुषिर वाद्य तथा कथक नृत्य आदि में इस तरह की संगति देखने को मिलती है।
(२) सहसंगति : इसे साथ-संगति या लड़त की संगति भी कहते हैं। इसमें मुख्य संगीतकार और संगतिकार प्रतिद्वंद्वात्मक रूप में अपनी कलाकौशल का परिचय साथ- साथ देते हैं। लय के चमत्कारिक पक्ष अतीत अनागत और बुद्धि चातुर्य का परिचय इस में कलाकार देते हैं। इसमें मुख्य कलाकार और सहयोगी कलाकार एक दूसरे को भ्रम में डालकर श्रोताओं को चमत्कृत करने का भी प्रयास करते हैं। ध्रुपद धमार की गायकी, कथक नृत्य तथा सुषिर वाद्यों के अंतिम चरण में संगति का यह प्रकार देखने-सुनने को मिलता है।
(३) भराव की संगति : बड़ा खयाल और तंत्र तथा सुषिर वाद्यों की विलंबित रचनाओं में जब आलाप या तान का कोई अंश मुखड़ा पर समाप्त हो और ताबलिक उस मुखड़े से सम तक की कोई संक्षिप्त रचना बनाए तो उसे भरीव की संगति कहते हैं। सामान्य लोगों के साथ-साथ कई संगीतकार भी सम को अत्याधिक महत्त्व देते हैं। इस महत्त्व को बनाए रखने में भराव की संगति का महत्त्व काफी बड़ा है। संगति के संबंध में एक विशेष बात और है कि, इसे किसी नियम में नहीं बांधा जा सकता है। कलाकार के मूड़, राग और ताल की प्रकृति तथा प्रस्तुत की जा रही रचना के भाव पक्ष को समझ देखकर ही संगति करनी पड़ती है। आलाप अंग की कई रचनाएँ ऐसी होती है, जिनका उत्तर तबले पर नहीं दिया जाता है। वहाँ सिर्फ ठेका बजाया जाता है। लेकिन कई लय प्रधान रचनाएँ ऐसी होती है, जिनका उत्तर अवश्य देना चाहिये इसीलिए संगति करते समय विवेक का प्रयोग करना चाहिए।
कथक नृत्य की संगति :
कथ्यक नृत्य की संगति में तबला वादक को नृत्यकार के हर बोल की संगति सिर्फ एक बार सुनकर करनी पड़ती हैं। इसीलिए ताबलिक को पूरी तरह सजग रहना पड़ता है। उसे नर्तक द्वारा प्रस्तुत की जा रही रचना के वजन, लय के प्रकार और तिहाइ के अंदाज की पूरी नकल उसी समय करनी पड़ती है। इसीलिए नृत्य की संगति को अपेक्षाकृत कठिन माना जाता है।