कुंवरदास कुदऊसिंह पखावजी
कुदऊसिंह जी का व्यक्तित्व बड़ा रौबीला था। ऊंचा कद, लम्बी भुजाएं, फिर पीले रंग का अलफा, तहमद (लुंगी), वाद्य-चर्म की टोपी, माथे पर सिंदूर के तीन आड़े तिलक उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं थीं। पखावज के गुरु भवानी सिंह उर्फ श्री दासजी थे। उन दिनों उत्तर भारत में लखनऊ और मध्य भारत में ग्वालियर संगीत के केन्द्र बने हुए थे। लखनऊ में नवाब वाजिदअली शाह और ग्वालियर नरेश महाराज जियाजी राव संगीत के बड़े प्रेमी थे। अतः कुदऊ सिंह पहले लखनऊ आए। वहां पखावज-वादन के सम्बन्ध में एक प्रतिस्पर्धा आयोजित हो गई। इस प्रतिस्पर्धा में जीतने वाले को नवाब की ओर से एक हजार रुपये के पुरस्कार की घोषणा कर दी गई। कुदऊसिंह ने इस प्रतियोगिता में जीतसिंह नामक पखावजी को परास्त कर दिया और इस प्रकार कीर्ति और सम्पत्ति दोनों प्राप्त कीं। नवाब ने भी इन्हें 'कुंवरदास' की उपाधि से विभूषित किया।
इनके बारे में पुस्तकों में अनेक घटनाएं व कथाएं प्राप्त होती हैं, कुछ इस प्रकार हैं-
लखनऊ के बाद कुदऊसिंह ग्वालियर दरबार में पहुंचे। वहां आपने महाराज से अपने लिए 'अविजित' होने का प्रमाण-पत्र मांगा। परन्तु अहंकार एक न एक दिन टूटता ही है। परीक्षा के लिए ग्वालियर दरबार के वृद्ध ध्रुपद गायक नारायण शास्त्री की संगति के लिए कुदऊसिंह जी बिठाए गए। ध्रुपद शुरू हुआ। कई बार प्रयत्न करने पर भी कुदऊसिंह सम के स्थान को न पहचान सके। इस प्रकार भरे दरबार में उनका गर्व चूर्ण हो गया। फिर महाराज जियाजी राव ने जब इनका वादन सुना तो उन्होंने उन्हें अपने दरबार में रख लिया। उल्लेखनीय है कि झांसी के तत्कालीन शासक गंगाधर राव के संरक्षण में एक नाटक मंडली थी। उसमें महाराज कुदऊसिंह पखावज-वादन के लिये नियुक्त थे। 1857 में स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक बड़ा विद्रोह हुआ। उसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य का वर्णन इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। परन्तु वे झांसी को बचा न सकी थीं। अंग्रेजों नेनाटक-मंडली के सभी कलाकारों तक को कैद कर लिया। चूंकि दतिया के राजा भवानीसिंह का अंग्रेजों से मधुर सम्बंध था, अतः कुदऊसिंह सहित सभी बंधक दतिया के कारावास में भेज दिये गये। कुछ समय के बाद किसी सूत्र से वहां की रानी को बंधकों में कुदऊसिंह के भी होने का समाचार मिला। कला पारखी रानी ने अपने प्रयास से उनको मुक्त करा दिया। परन्तु उस स्मृति को बनाये रखने के लिये महाराज कुदऊसिंह जीवन-पर्यन्त पैर में बेड़ी पहने रहे।
इसके सम्बन्ध में एक कथा जो विशेष प्रसिद्ध है वह इस प्रकार है-
दतिया के पास समथर नामक एक छोटा-सा राज्य था। उसके राजा चतुरसिंह भी संगीत के प्रेमी थे। पहले कभी एक बार सेंवड़ा के युद्ध में चतुरसिंह के पूर्वजों ने महाराज भवानीसिंह के पूर्वजों का साथ दिया था। उस युद्ध में विजित होने पर दतिया महाराज ने 'सेवड़ा विजय' के पुरस्कार स्वरूप समथर का राज्य चतुरसिंह के पूर्वजों को दे दिया था। इस कारण से दतिया के महाराज, समथर के राजा को अपने से छोटा समझते थे। सन् 1890 ई. की बात है कि सेंवड़ा के बीहड़ वन में एक पंजाबी बाबा रहते थे। ये उत्तम गायक थे। ये कभी-कभी दतिया के पखावजी कुंदऊसिंह के यहां आकर गाया करते थे। कुदऊसिंह पखावज पर संगति करते। एक बार महाराज भवानीसिंह को पंजाबी बाबा का गायन सुनने का अवसर मिला। उन्होंने बाबा के गायन की प्रशंसा की। इस पर पंजाबी बाबा ने कहा कि 'तुम बड़े भाग्यशाली हो कि तुम्हारे राज्य में पखावज का ऐसा कुशल वादक वास करता है'। पंजाबी बाबा की बात से प्रभावित होकर दतिया महाराज ने राजाशाही (उसके राज्य में चलने वाले चांदी के) सात रुपये रोज और भंडार से भोजन का प्रबन्ध कर दिया। साथ में आवश्यकता होने पर सात सौ रुपया प्राप्त करने की घोषणा भी कर दी। एक बार टीकमगढ़ से एक कत्थक (नर्तक) आया। उस्ताद ने उसके समारोह के लिए विशेष प्रबन्ध किया और दो सौ रुपये की मांग की। दीवान ने रुपये देने में कुछ झंझट किया। फलस्वरूप अप्रसन्न होकर आप दतिया से बाहर चले गये। भवानी सिंह ने कहा कि 'आप जहां जाना चाहें चलेजायें किंतु समथर न जाएं'। इस पर आपने उत्तर दिया कि 'आप हमें रोकने वाले कोई नहीं हैं। जहां हमारी इच्छा होगी जाएंगे'। और, आप भवानीसिंह की इच्छा के विरुद्ध समथर ही जा पहुंचे। वहां भी उनका खूब स्वागत-सत्कार हुआ। वहां भी जब तीन-चार महीने बीत गये और इनका कोई कार्यक्रम नहीं हुआ तो आप चतुरसिंह से बोले 'हम कोई रोटी तोड़ने थोड़े ही आए हैं, कोई कार्यक्रम कराइए'। इस पर चतुरसिंह बोले 'एक-दो वर्ष रहिए कार्यक्रम तो होता ही रहेगा।' इस पर आपने कहा कि 'तो अब हम जाने वाले हैं'। महाराज ने पुनः कहा कि 'अच्छा दशहरे का त्यौहार पास में है। उसमें हमने एक मद-मस्त हाथी को वश में करने का कार्यक्रम रखा है। उस उत्सव के बाद आपका कार्यक्रम रखा जाएगा'। इस पर आप बोले कि उसे हम पखावज सुनाकर वश में कर देंगे। इनकी आज्ञानुसार एक तख्त पर आप पखावज लेकर बैठ गये। आपने पखावज पर 'गज परन' बजाना शुरू किया और महाराज से कहा कि अब हाथी को छोड़ा जाए। हाथी झूमता हुआ आया और पखावज सुनकर शान्त स्थिति में उसने अपना मस्तक पखावज पर रख दिया। इस पर चतुरसिंह ने प्रसन्न होकर कुदऊसिंह को तिलक किया, उनकी पखावज का पूजन किया, उनकी भुजा में स्वर्ण कण्कण बांधा, साथ में एक सहस्र रुपये उस हाथी पर वार कर, वह धन तथा हाथी भी कुदऊसिंह को दे दिया। बस, कुदऊ सिंह पुनः भवानीसिंह के यहां हाथी सहित लौट आए। अब महाराज ने दीवान से कहा कि 'दीवान साहब अब तक तो अकेले उस्ताद का ही खर्चा था अब इस हाथी का भी बोझ उठाना पड़ेगा। गुणी, और कलाकारों को नाराज करने पर यही सजा मिलती है'। आपके प्रमुख शिष्यों में अजयगढ़ के सितारे हिन्द मदनमोहन उपाध्याय, टीकमगढ़ के हरचरण लाल झल्ली, पर्वतसिंह, रामदास, देवकीनंदन पाठक, विष्णुदेव पाठक, पुत्र भैया लाल एवं पं. अयोध्या प्रसाद प्रमुख थे। दतिया में आज भी कुदऊसिंह की हवेली, उनकी कीर्ति की मूक दर्शक विद्यमान है, जो अब अग्रवाल धर्मशाला में बदल गयी है। आपका घराना 'सिंह घराने' के नाम से जाना जाता है। आपकी समाधि, दतिया से लगभग एक मील पूर्व उन्नाव केमार्ग पर, झांई दरवाजे के पास बनी हुई है। लगभग 95 वर्ष की दीघार्यु भोगने के बाद 1910 के आसपास आप परलोक सिधारे ।