तबला वादकों का जीवन परीचय

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तबला वादकों का जीवन परीचय


तबला वादकों का जीवन परीचय 

भाग १

उस्ताद मुनीर खाँ :


उस्ताद मुनीर खाँ का जन्म १८६३ साल में मेरठ जिल्हें के ललीयाना गाँव में हुआ था। तबले की प्रथमिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता उस्ताद काले खाँ से हासिल की। फिर उन्होंने उस्ताद हुसेन अली खाँ से गंडा बंधवाया । १५ साल तक उस्ताद हुसेन अली खाँ साहब के पास तालीम लेने के बाद वे दिल्ली घराने के खालीफा उस्ताद बोलीबक्ष के भी शागिर्द बने | ऐसा कहते हैं, कि तबले की उत्तमोत्तम रचनाएँ प्राप्त करने के लिए वे सदैव उत्सुक रहते थे। अतः उन्होंने उस्ताद नजरअली खाँ, उस्ताद ताज खाँ, उस्ताद नायर खाँ पखावजी आदि कुल मिलाकर चौबीस गुरुओं से तबले की शिक्षा प्राप्त क थी। सभी घरानों का तबला उन्हें पसंद आता था। उनकी यह भी धारणा रही की, निकास और रियाज की मदद से कलाकार किसी भी घराने का तबला बजा सकता है । इस विचार को उन्होंने खुद के उदाहरण से साबित कर दिखाया । तबले के बहुत से घरानों की रचनायें हासिल करने के कारण तबले के जगत में उन्हें "कोठी वाले तबलावादक की उपाधि प्राप्त हो गयी थी।" लगबग चोबीस गुरूओं से तबले की विद्या हासिल करने के बाद भी नई-नई रचनाएँ हासिल करने की उनकी तृष्णा बुझी नहीं। बल्कि महान गुरूओं के संस्कारों के कारण वे स्वयं भी नई-नई खुबसुरत रचनाएँ बाने लगे। वे एक प्रतिभावान रचनाकार तथा समर्थ शिक्षक भी थे। अलग-अलग घराणी के वैशिष्ट्यों को नजर रखते हुये उन्होंने अपना खुद का तबला बनाया। जिसकी वजह से एक नये घराने का उदय हुआ उस्ताद मुनीर खाँ का अधिकतम वास्तव्य मुंबई में होने के कारण इस घराने का नाम 'बम्बई घराना' रखा गया उस्ताद मुनीर खाँ के शिष्यों में उनके भांजे उस्ताद अमीर हुसेन खाँ, उस्ताद नासिर खाँ पानीपतवाले, उस्ताद अहमद जान थिरकवा, उस्ताद बाबालाल इस्लामपूरकर मुख्य हैं। उस्ताद मुनीर खाँ का देहांत रायगड में १८ नवंबर १९३७ में हुआ।


मियाँ चूडियावाले इमामबख्श :


                 फरुखाबाद घराना तबले का एक परिपूर्ण घराना है। इस घराने ने आज तक एक से एक तबलावादक दिये है। उनमें से एक गणमान्य तबलावादक थे, मियाँ चुडियावाले इमाम बख्श । मियाँ इमाम बख्श की जन्म और मृत्यु के बारे में कोई पक्की जानकारी किताबो में नहीं मिलती। अमीर हुसेन खाँ साहब जब ८/९ साल के थे तब वे मियाँ चूडियावालेजों के पुत्र उ हैदर खाँ से तालीम लेते थे। हैदर खांसाहब की उम्र तब ९५ बरस थी। इस बात से हम यह अंदाजा लगा सकते है कि मियाँ इमाम बख्श का कार्यकाल १९ वी सदी का प्रारंभिक काल होगा। पुराने उस्ताद, के बारे मे जो कहानी बताते हैं वह बड़ी दिलचस्प है। हाजी खाँ के तबले से प्रभावित होकर उन्होंने भी तबलावादक बनने की ठान ली। हाजी खांसाहब से ही तबला सीखने की उनकी इच्छा थी लेकिन उनसे ऐसा पूछने की उनमें हिम्मत नहीं थी। फिर उन्होंने हाजी खाँसाहब के हुक्के से तंबाकू भरने का काम करने की नौकरी स्वीकार ली और उस बहाने वे हाजी खांसाहब के यहाँ रहने लगे। हाजी खाँसाहब के सत्संग में रहकर केवल उनका तबला सुन सुनकर उन्होने काफी विद्या ग्रहण की। हाजी खाँसाहब को जब इस बात का पता चला तब बड़ी उदारता से उन्होने इमाम बाजी को अपने गंडाबंध शागीर्द के रूप में स्वीकार किया। इमामबख्श खाँसाहब के गंडाबंधन की कथा भी बड़ी भावपूर्ण है। उस्ताद हाजी विलायत खाँसाहब की पत्नी मोतीबीबी उस्ताद बक्शू खाँसाहव की पुत्री थी। उ. बक्शू खाँ लखनऊ घराने के संस्थापक थे और हाजी खाँसाहब के गुरु थे। मोतीबीबी को काफी तबला याद था और हाजी साहब अपनी पत्नी को भी गुरु मानते थे और इसलिये इमाम बख्श साहब का गंडाबंधन हाजी साहब ने मोतीबीबी से करवाया था । मोतीबीबीजी ने उस समय गंडे में धागे के साथ साथ अपनी चूडी का भी इस्तेमाल किया था और तब से इमाम बख्श खाँसाहब मियाँ चूडियावाले के नाम से प्रसिद्ध हो गये। फरुखाबाद घराना यह लखनऊ घराने का शागीर्द घराना है और इसलिये लखनऊ घराने की सभी विशेषताएं इस घराने में मौजूद है। हाजी खांसाहब ने इन विशेषताओं में दिल्ली घराने की निकास और विचार पदधति को खूबसूरती से मिलाकर फरुखाबाद घराने की वादनशैली को विकसित किया है। मियाँ चूडियावालेजी के तबलावादन मे ये सारी विशेषताएं मौजूद थी। मियाँ चूडियावाले एक अच्छे स्वतंत्र तबलावादक तो थे ही साथ साथ वे एक कुशल संगतकार भी थे। ग्वालियर घराने के मशहूर गायकबंधु उस्ताद हद्दू हसू खाँ की वे अच्छी संगत करते थे ।



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