सात स्वरों का अर्थ
षड्ज - षड्ज स्वर को यह संज्ञा इसलिये दी गई है कि वह (१) रे ग म प ध नि - इन ६ स्वरों का जनक है, अथवा (२) सप्तक के अंगरूप अन्य ६ स्वरों के द्वारा वह उत्पन्न अथवा प्रकाशित होता है, अथवा (३) नाक, कण्ठ, हृदय, तालु, जीभ और दाँत-शरीर के इन ६ ध्वनि उत्पादक अंगों से उत्पन्न होता है।
ऋषभ - (१) 'जाना' अर्थ वाली 'ऋष्' धातु से बनने वाले ऋषभ शब्द में धातु के अर्थ के कारण यह अर्थ है कि जो हृदय में अन्य स्वरों के साथ 'जाता' है अर्थात् हृदय को तुरन्त प्रभावित करता है इसलिये ऋषभ कहलाता है, अथवा (२) जैसे गायों के समूह में ऋषभ अर्थात् बलीवर्द (साँड) विशेष रूप से बलवान् दिखाई देता है उसी तरह स्वरों के समूह में ऋषभ स्वर बलवान् होता है, अथवा (३) ऋषभ (साँड) के समान नाद उत्पन्न करता है (नदति) इसलिये वह ऋषभ स्वर है।
गान्धार - (१) 'धारण' अर्थ वाली 'धृ' धातु से 'गो' शब्द उपपद में होने पर 'गान्धार' शब्द बनता है। 'गां धारयतीति गान्धारः' अर्थात् 'गां' यानी गानात्मिका वाणी को धारण करता है इसलिये यह स्वर गान्धार कहलाता है, अथवा (२) गन्धव के सुख का कारण है इसलिये गान्धार कहलाता है।
मध्यम - सात स्वरों के मध्य में रह कर स्वरों का मान (माप) करने के कारण मध्यम कहलाता है।
पञ्चम - (१) 'विस्तार' अर्थ वाली 'पच्' धातु और 'नापना' अर्थ वाली 'मि' धातु से मिल कर यह शब्द बनता है। तदनुसार अन्य स्वरों के विस्तार को नापता है इसलिये पंचम कहलाता है। चतुः सारणा विधि से यह स्पष्ट हो चुका है कि सभी स्वरों की अपनी-अपनी श्रुतिसंख्या के रूप में उनके विस्तार को नापने के लिये पंचम से ही क्रिया शुरू करना संभव है, अन्य किसी स्वर से नहीं। इस रूप में पंचम ही अन्य स्वरों को नापता है। इसीलिये प्रथम अपकर्ष से प्राप्त पंचम की श्रुति को 'प्रमाणश्रुति' कहा गया है। इसी तथ्य की ओर यहाँ संकेत है, अथवा (२) स्वरों के क्रम में यह पञ्चम (पाँचवें स्थान पर है इसलिये पञ्चम कहलाता है, अथवा (३) उच्चारण स्थानों में पाँचवें स्थान से उत्पन्न होता है इसलिये पञ्चम संज्ञा है।
धैवत - (१) 'धीवान्' अर्थात् सूक्ष्म बुद्धि वाले व्यक्तियों के द्वारा सुना जाने के कारण धैवत कहलाता है। मतंग के इस कथन की कोई स्पष्ट व्याख्या कल्लि० ने नहीं की है। किन्तु संभवतः उक्त कथन में षड्जग्रामिक स्वरों में धैवत की प्राप्ति संबंधी सूक्ष्म तथ्य की ओर संकेत है। षड्जग्राम में धैवत षड्ज पंचम अथवा षड्ज-मध्यम संवाद के आधार पर प्राप्त नहीं होता बल्कि मन्द्र षड्ज के तार से स्वतः उत्पन्न होने वाले सप्तश्रुत्यन्तर अन्तर गान्धार (वर्तमान शुद्ध गान्धार) के द्वारा होती है क्योंकि जो अन्तराल षड्ज अन्तर गान्धार में होता है वही मध्यम-धैवत में है। लेकिन दो प्रमुख संवादों जैसा स्पष्ट न होने और सूक्ष्म श्रवणेन्द्रिय वाले व्यक्तियों के द्वारा ग्राह्य होने के कारण इस संवाद के आधार पर सुना जाने वाला स्वर होने से इसे धैवत संज्ञा दी गई है, अथवा (२) उच्चारण स्थानों में से छठे स्थान ललाट में धारण होता है इसलिये धैवत कहलाता है।
निषाद - 'गति' (जाना) अर्थ वाली 'षदलृ' धातु से यह शब्द बनता है जिसका अर्थ है 'जिसमें पर्यवसित हो'। सप्तक का अन्तिम स्वर होने से अन्य स्वर इसमें पर्यवसित होते हैं इसलिये निषाद कहलाता है।
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