नकारं प्राणनामानं दकारमनलं
विदु:
।
जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोsभीदीयते ||
-संगीत रत्नाकर
अर्थात ‘नकार‘
यानी प्राण (वायु)
वाचक तथा ‘दकार’
अग्नि वाचक है , अतः जो वायु और अग्नि के संबंध (योग) से
उत्पन्न होता है, उसी को ‘नाद’
कहते है ।
आहतोsनाहतश्चेति
द्विधा नादो निगद्यते ।
सोयं
प्रकाशते पिडें तस्मात् पिंडोंsभिधीयते
।।
अर्थात नाद के दो प्रकार माने जाते हैं,
आहत तथा अनाहत । जो देह (पिंड) से
प्रकट हुआ है, उसे पिंड नाम प्राप्त होता है ।
अनाहत नाद - जो नाद केवल ज्ञान से जाना जाता है, जिसके पैदा होने का कोई खास कारण न हो, यानी जो बिना संघर्ष या स्पर्श के पैदा हो जाय, उसे अनाहत नाद कहते हैं । जैसे दोनों कान जोरसे बंद करने पर भी अनुभव करके देखा जाय तो “घन्न-घन्न” या “सांय-सांय” की आवाज सुनाई देती है । इसी अनाहद नाद की उपासना हमारे प्राचीन ऋषि मुनि करते थे । यह नाद मुक्तिदायक तो है , किंतु रक्तिदायक नहीं । इसलिए यह संगीत उपयोगी भी नहीं है, अर्थात संगीत के अनाहत नाद का कोई संबंध नहीं है ।
आहत नाद - जो
कानों से सुनाई देता है और जो दो वस्तुओं के संघर्ष या रगड़ से पैदा होता है, उसे आहत नाद कहते हैं । इस नाद का
संगीत से विशेष संबंध है । यद्यपि अनाहत नाद को मुक्तिदाता माना
गया है,
किंतु आहत नाद को भी भवसागर से पार लगाने वाला बताकर संगीत दर्पण
में दामोदर पंडित ने लिखा है :-
स नादस्त्वाहतो लाके
रंजकों भवभंजक: ।
श्रुत्यादि द्वारतस्तस्मात्तदूत्पत्तिनिरूप्यते ।।
भावार्थ-आहत
नाद व्यवहार में श्रुति इत्यादि ( स्वर ग्राम
मूर्च्छाना ) से रंजक बनकर भव-भंजक भी बन जाता
है इस कारण उसकी उत्पत्ति का वर्णन करता है ।
उपरोक्त उदाहरणों से यह सिद्ध होता है
कि आहत नाद ही संगीत के लिए उपयोगी है । इसी नाद के
द्वारा सुर-मीरा इत्यादि ने प्रभु सांनिध्य
प्राप्त किया ।
नाद के संबंध में तीन बातें ध्यान में रहनी चाहिए:-
1.नाद का छोटा-बड़ापन (Magnitude)
2.नाद की जाति अथवा गुण ( Timbre)
3.नाद का ऊंचा-नीचापन (Pitch)
( 1. नाद का छोटा बड़ापन - जो आवाज़ नजदीक हो और धीरे धीरे सुनाई पड़े, उससे छोटा नाद कहेंगे और जो आवाज़ दूर से आ रही हो तथा ज़ोर ज़ोर से सुनाई पड़े, उसे बड़ा नाद कहेंगे ।
( 2. नाद
की जाती - नाद की जाती से यह मालूम होता है कि जो आवाज आ रही है, वह किसी मनुष्य की है, या किसी बाजे से निकल रही है । उदाहरणार्थ एक नाद हारमोनियम,सारंगी,सितार वेला इत्यादि से प्रकट हो रहा है, और एक नाद किसी गवैये के गले से प्रकट हो रहा है , तो हम नाद प्रकट होने की उस क्रिया को देखे बिना ही यह बता देंगे कि यह न किसी साज का है या किसी मनुष्य का । इसी क्रिया को पहचानना ‘नाद की जाति’ कहलाती है ।
( 3. नाद
का ऊंचा-नीचापन- नाद का उच्च-निच्चता से यह मालूम होता है कि जो आवाज आ रही है, वहीं ऊंची है या नीची । मान लीजिए हमने सा स्वर सुना, इसके बाद रे सुनाई दिया और फिर ग सुनाई दिया । इस प्रकार नियमित ऊंचे स्वर सुनने पर हम उसे उच्च नाद कहेंगे, और सा स्वर के नीचे नी, ध, प इत्यादि स्वर सुनाई दिए, तब उसे नीचा नाद कहेंगे । इसी बात को और अच्छी तरह इस प्रकार समझे, कि कोई
भी नाद हवा में थरथराहट या कंपन होने पार पैदा होता है। यह कंपन एक नियमित वेग यानी
रफ्तार से तथा शीघ्रता पूर्वक होता है , तभी शीघ्रतापूर्वक होता है, तभी
हमारे कानो को वह सुनाई देता । प्रत्येक नाद उत्पन्न होने के लिये कंपन का वेग प्रति
सेकंड निश्चित होता है ,
कंपन का वेग जितना अधिक होगा, नाद
नहीं । जैसे-किसी
बाजार की भीड मे या मेले में कोई जोर से चिल्ला रहा है , कोई
धीरे बोल रहा है,
किसी और बच्चे रो रहे है, कोई
हस रहा है,
तो इन क्रियाओ के द्वारा वायू में जो कंपन होंगे
, वे अनियमित
ही तो होंगे और यह अनियमित कंपन शोरगुल ही कहलायेगा । इसके विरुद्ध
एक व्यक्ती कुछ गा राहा है, या बाजा बजा रहा है, तो उसकी
आवाज के कंपन हवा मे नियमित रूप के होंगे, और वे
हमें अच्छे भी मालूम होंगे, बस उसे ही संगीतपयोगी ‘नाद’ कहेंगे ।