सारंगी
भारतीय शास्त्रीय संगीत में सारंगी एक प्रमुख वाद्य यंत्र है जो अपने मधुर और गहरे स्वरों के लिए प्रसिद्ध है। इसका उपयोग विशेष रूप से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में किया जाता है।
1. आकृति और संरचना : सारंगी एक तंतुवाद्य (string instrument) है, जो लकड़ी से बना होता है और इसमें तीन मुख्य तार (main strings) होते हैं। इसके अलावा, 35-40 अतिरिक्त रेजोनेटर तार (sympathetic strings) भी होते हैं, जो बजाने पर सह-ध्वनि उत्पन्न करते हैं। सारंगी के तारों को घोड़ों के बाल से बने धनुष (bow) की सहायता से बजाया जाता है।
2. ध्वनि और स्वभाव : सारंगी की ध्वनि बहुत ही मधुर और मानवीय स्वर के निकट मानी जाती है। इसके स्वर गहरे होते हैं, जो इसे गेयता प्रदान करते हैं। यह विभिन्न प्रकार की भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम है, जो इसे गायन और वादन दोनों के लिए उपयुक्त बनाता है।
3. बजाने की विधि : सारंगी को बजाने के लिए इसे वादक की गोद में रखा जाता है और धनुष से तारों को खींचा जाता है। उंगलियों के नाखूनों से तारों को दबाकर विभिन्न स्वरों का निर्माण किया जाता है।
सारंगी की उत्पत्ति
सारंगी की उत्पत्ति का सटीक इतिहास अस्पष्ट है, लेकिन इसे प्राचीन भारतीय संगीत के सबसे पुराने वाद्य यंत्रों में से एक माना जाता है। यह माना जाता है कि सारंगी का विकास राजस्थानी लोक संगीत के वाद्यों से हुआ है। इसका नाम 'सारंगी' संस्कृत के शब्द 'सारंग' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'रंगीन' या 'बहुरंगी', जो इसके ध्वनि की विविधता को दर्शाता है।
सारंगी के प्राचीन रूप 'रावणहत्था' का उल्लेख भारतीय पौराणिक कथाओं में भी मिलता है, जिसे भगवान शिव के द्वारा बजाया गया था। आधुनिक स्वरूप की सारंगी मुग़ल काल के दौरान विकसित हुई और तब से यह भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभिन्न अंग बन गई।
सारंगी के प्रसिद्ध वादक
भारतीय संगीत में कई प्रसिद्ध सारंगी वादक हुए हैं, जिन्होंने इसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बनाया। इनमें उस्ताद सुल्तान खान, पंडित राम नारायण, और उस्ताद सागिरुद्दीन खान जैसे महान कलाकार शामिल हैं। इन वादकों ने सारंगी को वैश्विक मंच पर भी मान्यता दिलाई है। सारंगी का भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक महत्वपूर्ण स्थान है और इसकी ध्वनि आज भी श्रोताओं के हृदय को छूने में सक्षम है।