स्वरलिपि पद्धत्ति
किसी गाने की कविता को अथवा साजों पर बजाने की गत को स्वर और ताल के साथ जब लिखा जाता है, तब उसे स्वरलिपि (Notation) कहते हैं। प्राचीन काल में भारतवर्ष में लगभग ३५० ई.पू. अर्थात् पाणिनी के समय के पहले ही स्वरलिपि पद्धति विद्यमान थी। किन्तु तब यह स्वरलिपि पद्धति अपने शैशवकाल में ही थी। उस समय तीव्र तथा कोमल स्वरों के भेद तथा ताल मात्रा सहित स्वरलिपि नहीं होती थी; अपितु केवल स्वरों के नाम उनके प्रथम अक्षरों के साथ सरगम के रूप में दिये जाते थे। उनसे केवल इतना ही बोध होता था कि अमुक गायन में अमुक स्वर प्रयुक्त हुए हैं।
तीव्र कोमल स्वरों के चिन्ह न होने के कारण एवं ताल, मात्रा, मींड आदि के अभाव में उन स्वरलिपियों से संगीत विद्यार्थी लाभ उठाने में असमर्थ रहे । प्राचीन समय में स्वरलिपि पद्धति का विकास न होने के और भी कुछ कारण थे, उदाहरणार्थः -
१ - उस समय संगीत कला विशेषतया क्रियात्मक (Practical) रूप में थी अर्थात् गुरु मुख से सुनकर ही विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण किया करते थे ।
२- लेखन प्रणाली एवं मुद्रण संबंधी सुविधायें उस समय आजकल जैसी न थीं।
३- रागों को जवानी (मौखिक ) याद रखा जाता था ।
४- संगीत कला गुरू से शिष्य को और शिष्य से उसके शिष्य को सिखाने या कंठस्थ कराने की प्रथा थी।
५- प्राचीन समय के उस्ताद अपनी कला को केवल अपने पुत्र अथवा विश्वसनीय शिष्यों को लिखकर नहीं बताते थे, बल्कि सीना व सीना (सामने बैठकर ) ही सिखाना पसन्द करते थे ।
विद्यार्थियों के लिये सुबोध और सरल स्वरलिपि का निर्माण आज से ५०-६० वर्ष पूर्व हुआ। जिसका श्रेय भारतीय संगीत की दो महान् विभूतियों १-पं० विष्णु नारायण भातखण्डे २- पं० विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को है।
इनके द्वारा निर्मित स्वरलिपियों का प्रचार शनैः शनैः समस्त भारत में होता गया । बीच-बीच में अन्य कई संगीत पंडितों ने भी अपनी-अपनी प्रथक स्वरलिपि पद्धतियां चालू कीं, किन्तु वे व्यापक रूप से प्रचार में न आ सकीं और आज उक्त दोनों (भातखण्डे व पलुस्कर ) पद्धतियां ही लोकप्रिय होकर प्रचार में आ रही हैं।
यद्यपि इन स्वरलिपि पद्धतियों से गायक के गले की सभी विशेषताएँ लिपिबद्ध करना सम्भव नहीं हो सका है। उदाहरणार्थ भारतीय संगीत की विशेषतायें गमक, गिटकरी, राग सौंदर्य , अलंकार, श्रुति प्रयोग, स्वर माधुर्य आदि बारीकियां स्वरलिपि द्वारा व्यक्त नहीं की जा सकतीं। फिर भी वर्तमान स्वरलिपि पद्धतियों से संगीत विद्यार्थियों को जा सहायता मिली है और मिल रही है उसे भुलाया नहीं जा सकता ।श्री भातखंडे ने पुराने घरानेदार उस्तादों के गायनों की स्वरलिपियाँ तैयार करने में बहुत ही परिश्रम किया था। उन्होंने समस्त भारत का भ्रमण करके उस्तादों की सेवा करके स्वरलिपिया तैयार कीं। उस समय कुछ ऐसे भी उस्ताद थे जो अपने गाने की स्वरलिपि किसी भी प्रकार दूसरे व्यक्ति को बनाने की आज्ञा नहीं देते थे। पं.भातखंडे ने बडी युक्ति और कौशल मे परदों के पीछे छिप छिप कर उनका गायन सुना और स्वरलिपिया तैयार की एक बहुत स्वरलिपिया ग्रामोफोन रेकर्डों द्वारा भी तैयार कीं, इस प्रकार कई हजार चीजों की स्वरलिपिया तैयार करके उन्होंने क्रमिक पुस्तक मालिका ६ भागों में प्रकाशित कर संगीत विद्यार्थियों का मार्ग प्रशस्त बना दिया। इसी प्रकार पंडित विष्णुदिगम्बर पलुस्कर ने भी कई पुस्तकें तैयार की। पलुस्कर जी की स्वरलिपि पद्धति जो प्रारम्भ में उनके द्वारा चालू हुई थी, अब उसमे कुछ परिवर्तन हो गये हैं, यही कारण है कि विष्णु दिगम्बर जी की प्रारम्भिक मुल पुस्तकों में, तथा आज उनके विद्यालयों में चलने वाली 'राग विज्ञान' आदि पुस्तकों के चिन्हों में काफी अंतर पाया जाता है। तथापि वर्तमान स्वरलिपि प्रणाली उनकी प्राचीन प्रणाली से अधिक सुविधाजनक है, यही कारण है कि यह परिमार्जित स्वरलिपि पद्वति विशेष रूप से प्रचार में आरही है |