उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ
अजराडा घरानें को एक नई दिशा और नई पहचान देनेवाले उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ का जन्म मेरठ (उत्तर प्रदेश) में सन १८९० में हुआ था । पिता शम्मू खाँ, पितामह फस्सू खाँ और प्रपितामह काले खाँ तबले के विद्वान थे, अत, हबीबुद्दीन खाँ ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पिता के चरणों में बैठकर प्राप्त की।
हबीबुद्दीन खाँ में सृजन की बलवती भावना थी, अतः वह अपने बाज को और अधिक विस्तार देना चाहते थे, उसे अधिक क्षमतावान बनाना चाहते थे । और, यह अजराडे की सीमाओं में रहते हुए संभव न था । क्योंकि, बाएँ की सघन भूमिका ने जहाँ अजराडे को एक नई पहचान दी है, वहीं उसे सीमाओं में बाँध भी दिया हैं। हबीबुद्दीन खाँ समझ गए थे की अगर उन्हें चतुर्मुखी वादक बनना है तो उन्हें इन सीमाओं के बाहर निकलना ही पड़ेगा... और वह निकले ।
हबीबुद्दीन खाँ ने आगे की शिक्षा दिल्ली घराने के उस्ताद नत्थू खाँ और लखनऊ घरानें के उस्ताद अली रजा खाँ से प्राप्त की। अजराडा, दिल्ली और लखनऊ तीनों वादन शैलियों को सीखकर हबीबुद्दीन खाँ ने व्यावसायिक स्तर पर स्वयं को पूरी तरह सुरक्षित कर लिया । अजराडा घराने के वह एकमात्र कलाकार थे जो नृत्य की संगति में भी पूरी तरह निपुण थे।
उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ ने अपने तबला वादन की एक नयी शैली विकसित की थी, जो उन्हीं के साथ समाप्त हो गई। वे अपने संगीत को व्याकरण के नीरस बंधनों में जकड़कर नहीं रखते थे। इसीलिए बोलों का विस्तार करते समय कई बार वे उसकी सीमा रेखा के बाहर आ जाते थे। खाँ साहब ऐसे बिरले ताबलिक थे जो कई बार सिर्फ बायें के वर्णों से बोलों का विस्तार करते थे और लोगों के दिलों में उत्तर जाते थे।वह समय हबीबुद्दीन खाँ के चरमोत्कर्ष का था, जब लखनऊ के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में उन्हें 'संगति सम्राट' की उपाधि से विभूषित किया गया । उत्तरप्रदेश संगीत नाटक अकादमी ने भी सन १९७० में उन्हें सम्मानित किया । प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू ने भी उन्हें सम्मानित किया था । सन १९४० से १९६० तक हबीबुद्दीन खाँ के नाम का डंका बजता था। चाहे गायन-वादन और नृत्य का कार्यक्रम हो, चाहे एकल तबला वादन का... हर ओर उस्ताद की माँग होती थी। खाँ साहब चतुर्मुखी वादक थे और रंजकता उनके वादन का प्रमुख गुण था। यही कारण था कि अजराडा घराने में तमाम गुणी तबला वादकों के होते हुए भी उस्ताद की लोकप्रियता सर्वोपरी रही। और, उस लोकप्रियता को आजतक भी उस्ताद के निधन के इतने वर्षों के बाद भी कोई खंडित नहीं कर पाया है। आज भी अजराडा घराने का नाम आते ही पहला नाम उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ का ही लिया जाता है। इसे ही कहते है कालजयी - लोकप्रियता ।
१९६६ में वह पक्षाघात (लकवा) के शिकार हो गए। इस विद्वान कलाकार के अंतिम दिन अत्यंत कष्टमय बीते। आर्थिक विपन्नता और लकवा जैसी बीमारी से जूझते हुए हबीबुद्दीन खाँ ने १ जुलाई १९७२ को मेरठ में इस संसार से विदा लिया।
इनके ज्येष्ठ पुत्र मंजू खाँ अच्छा तबला बजाते हैं। हबीबुद्दीन खाँ के शिष्यों में स्व. रमजान खाँ, मनमोहन सिंग, प्रो. सुधीर सक्सेना और स्व. लोकमन का नाम विशेष उल्लेखनीय है।