भरतभाष्य
भूपति नान्यदेवकृत भरतभाष्य
भूपति नान्यदेव मिथिला के राजा थे इनका समय 11 वी शताब्दी का उत्तरार्ध था। इनके ग्रन्थ का नाम भरतभाष्य तथा सरस्वती हृदयालंकार है इसे लोग भरतभाष्य के ही नाम से जानते हैं। नाम से लगता है कि यह भरत का ही कथन होगा, मगर यह स्वतंत्र ग्रन्थ है। बहुत-सी ऐसी बातों का उल्लेख इसमें है जो किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं मिलता। यह ग्रन्थ काफी बड़ा है, जो आंशिक रूप से प्राप्त है। इसमें 6,7 अध्याय अधूरे-से हैं और दो भाग ही प्रकाशित हैं। कुल अध्याय 17 थे, बाकी अध्याय प्रकाशित नहीं हैं। । एक ही पाण्डुलिपी है जो भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूना में है। इस ग्रंथ की विशेषता दो-तीन बातों से है- (1) शिक्षा उच्चारण शास्त्र, (2) छन्द पर भी अलग अध्याय है। (3) ध्रुवाओं पर भी एक अध्याय था जो लुप्त है। जो पाण्डुलिपि पूना में है वह अपूर्ण है और बाकी अध्याय भी खंडित हैं। इस प्रकार महत्वपूर्ण होते हुए भी यह ग्रन्थ आज पूर्ण रूप में नहीं मिलता है, खंडित प्राप्त होता है। ग्रन्थ के अन्तःसाक्ष्य के आधार पर पूरे ग्रन्थ की विषयवस्तु इस प्रकार है-
पहला अध्याय- सबसे पहले मंगलाचरण के द्वारा स्तुति की गयी है। पूरा ग्रन्थ तीन भागों में बंटा है। किसकी क्या विषयवस्तु है, इसका संग्रह शुरू में दिया गया है। नादोत्पत्ति - बाईस प्रकार के नाद और श्रुति, श्रुति सेनाद की उत्पत्ति, स्वर की विकृत अवस्था, शुद्ध विकृत मिलाकर चौदह स्वर, गीत-भेद, संगीत का महत्व, ग्रन्थ के सत्रह अध्यायों का संग्रह, चार प्रकार के वाद्य विभिन्न प्रकार की वीणा और उसके भेद, गीत के दोष, भरत के मत से कंठ के दोष, कंठ के गुण, भरत के ही मत से गान और गायक के गुण का वर्णन किया है।
दूसरा अध्याय - शिक्षा शब्द की व्युत्पत्ति, वर्ण की उत्पत्ति, वर्णों के स्थान और प्रयत्न, उदात्त आदि स्वरों का निरूपण, व्याकरण शास्त्रियों के मत से शब्द का नेतृत्व, स्वर साधना (भाषा के स्वर अ, आ) इत्यादि को इस अध्याय में शमिल किया है।
तीसरा अध्याय - सात स्वरों के वर्ण, हर स्वरों के रंग,उदाहरण (पडज का रंग कमल की आभा के समान) स्वरों के वर्ण, जाति, छन्द, स्वरों के ऋषि (सृष्टा), देवता, उच्चारणकर्ता, स्वरों की परस्परप्रियता का सम्बन्ध, स्वरों को उत्पत्ति स्थान, तीन ग्राम, ग्राम का लक्षण, ग्रामों में श्रुति निदर्शन, अन्तर काकली स्वर, भरत के मत से मध्यम ग्राम की श्रुतियां, गांधार ग्राम का स्वर्ग में प्रयोग, गाधार ग्राम का निरूपण, स्वरों में उनकी स्थिति इस अध्याय के वर्ण्य विषय हैं।
चौथा अध्याय - मूर्च्छना निरूपण, चार प्रकार की मूर्च्छनायें, तीन ग्रामों में बाईस मूर्च्छनायें, मूर्च्छनाओं के देवता, नारद के मत से मूर्च्छनाओं के नाम, पाडव-औडव का लक्षण, तान का लक्षण, तान संख्या, प्रस्तार, नारद के मत से तीन ग्रामों की तान संख्या, भरत के मत से चौरासी तानें कश्यप आदि के मत से तानों की संख्या बतायी गयी हैं।
पांचवां अध्याय - यह ग्रन्थ में नहीं है। इसके शुरू में विषयवस्तु बतायी गयी है। अलंकार और गमक दो विषय इसमें हैं, ऐसा पता चलता है। गमक आदि का हिस्सा अध्याव सात में मिल जाता है।
छठा अध्याय - जाति निरूपण, शुद्धा विकृता जातियां, ग्रह, अंश आदि जाति लक्षणों का निरूपण, प्रत्येक जाति का ग्रह उदाहरण सहित, कपाल, इसकी उत्पत्ति, पाणिका का लक्षण, 18 पाणिका बताये हैं।