भारतीय संगीत में ताल और रूप विधान
भारतीय संगीत में ताल और रूप-विधान ग्रन्थ सन् 1984 में डॉ. सुभद्रा चौधरी द्वारा लिखा गया है। इस ग्रन्थ को पांच अध्यायों में विभक्त किया गया है- (1) ताल, (2) गीतक, (3) प्रबन्ध, (4) छन्द और (5) ध्रुवा। संगीत की दृष्टि से ताल, प्रबन्ध और छन्द में से ताल का स्थान सर्वप्रथम आता है। इसलिए ताल को सबसे पहले रखा है। गीत और वाद्य में से गीत की प्रधानता मानी गई है, और मार्ग तालों के स्वरूप की सिद्धि गीतकों में होती है: इसीलिए ताल के बाद गीतक को रखा है। गीतक के तत्व स्वर, ताल और पद हैं। प्रबंध में भी मुख्य रूप में यहीं तीन तत्व हैं. यद्यपि गीतक ताल प्रधान है और प्रबंध पद प्रधान है। गीतक गेय हैं और प्रबन्ध भी गेय हैं। इस प्रकार इन दोनों में सामीप्य है। इसीलिए गीतक के बाद प्रबन्ध को स्थान दिया है। प्रबन्धों में पद की प्रधानता है, पद के साथ छन्द का संबंध है और प्रबन्धों में छन्द का विशेष स्थान है। इसीलिए प्रबंध के बाद छन्द को रखा है। गेय छन्द ही ध्रुवा कहलाते हैं जिन्हें भरत ने बहुत महत्व दिया है, इसलिए छंद के बाद ध्रुवा को लिया है। इसी प्रकार पांचों अध्याय अपने से पूर्व पूर्ववता अध्यायों से संबद्ध हैं। गीतक और ध्रुवा को छोड़कर शेष तीन अध्यायों में अलग-अलग परिच्छेद बनाये हैं। प्रत्येक अध्याय के परिच्छेदों का परिचय इस प्रकार है-
प्रथम अध्याय - यह चार परिच्छेदों में विभक्त है। पहले अध्याय के परिच्छेद 'क' में ताल और उसके तत्वों का विश्लेषण किया है। इसमें मार्ग और देशी की व्याख्या की गयी है और काल, घन, वाद्य, ताल, कला, पात, निःशब्द क्रियाएं, सशब्द क्रियाएं, मार्ग, तालों के अन्य भेद, मात्रा, लय, मार्ग आदि का निरूपण मूल ग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत किया है। ताल के पांच प्रकार हैं मार्गताल-चच्चत्पुट, चाचपुट, षपितापुत्रक, सम्पकवेष्टाक, उद्घट्ट कहे हैं। तालों की कलाविधि, अंगुलिनियम, मात्रा अथवा मार्गकला, यति, पाणि अथवा ग्रह इत्यादि को समझाया गया है।
प्रथम अध्याय के ही परिच्छेद 'ख' में देशी तालों का स्वरूप और विकास है। इसके अंतर्गत मान-सोल्लास, संगीत चूड़ामणि ग्रंथों के आधार पर देशीताल और उनके तत्वों का विश्लेषण किया है साथ ही ताल के अवयव, क्रियाएं, तालों के लक्षण एवं ताल प्रत्यय-प्रस्तार, संख्या, नष्ट, उद्दिष्ट, पाताल, द्रुतमेरू, लघुमेरू, गुरुमेरू, प्लुतमेरू, संयोगमेरू, खण्ड प्रस्तार, द्रुतमेरू नष्ट, द्रुतमेरू उद्दिष्ट, लघुमेरू नष्ट, लघुमेरू उद्दिष्ट, गुरुमेरू नष्ट, प्लुतमेरू नष्ट, गुरू व प्लुत मेरू उद्दिष्ट इत्यादि का वर्णन प्राप्त होता है।परिच्छेद 'ग' में रत्नाकरोत्तरकालीन ग्रंथों में प्राप्त लल सम्बन्धी तथ्यों को समझाया गया है। इस परिच्छेद में संगीत समयसार, संगीतोपनिषत्रोद्धार आनन्द संजीवन रह कौमुदी, संगीतदर्पण, नर्तननिर्णय, संगीत मकरंद, अनूपसंगीत रत्नाकर, अनूप संगीत विलास, अनूपसंगीतांकुस, अराजिর पृच्छा इत्यादि ग्रन्थों में प्राप्त विभिन्न देशीतालों की संख्य ताल की धारणा में परिवर्तन अवयव, मार्ग, अवयवों के मान, ग्रह, जाति, यति, मार्ग और देशीतालों में भेद को समाप्ति, नवीन नोड़ इत्यादि बातों को सम्मिलित किया है। परिच्छेद 'घ' में वर्तमान लक्ष्य में ताल का स्वर बताया है। इसमें ताल प्रयोग के आधार में परिवर्तन को बताया गया है। तत्पश्चात् ताल के भेद, यति, ग्रह और सम आदि को बताकर ताल प्रयोग के आधार वाद्य के रूप में घन से अवन की ओर जाने के कारणों को समझाया है तथा अनवद्ध वाद्यो पर ताल और 'ठेका' का वर्णन किया गया है।